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________________ अपभ्रंश और हिन्दी में जैन - रहस्यबाद ( ५ ) अध्यात्म सवैया - यह १०१ कवित्त, सवैया छन्दों में लिखा गया है । इसकी एक प्रति बघीचन्द मंदिर ( जयपुर ) से प्राप्त हुई है । एक अन्य प्रति ठोलियों के मंदिर (जयपुर) में सुरक्षित है ।' प्रायः सभी छन्दों में अध्यात्म की चर्चा की गई है। विश्व की स्थिति, जीव के स्वरूप तथा उसकी वर्तमान दशा पर अच्छा प्रकाश डाला गया है । कुछ छन्दों में जैन धर्म के सिद्धान्तों की प्रशंसा भी की गई है। रचना के अंत में लिखा है- 'इति श्री अध्यात्म रूपचन्द कृत कवित्त समाप्त ।' ६८ यह जीव महासुख की शय्या का त्याग करके, किस प्रकार पर क्षणिक सुख ( विषय मुख) के लोभ में आकर भटकता रहता है और अनेक प्रकार के कष्टों को सहन करता रहता है ? इन कष्टों का निवारण 'समिता रस' द्वारा ही सम्भव है । इसकी एक झलक निम्नलिखित सवैया में मिल जाती है : भूल गयौ निज सेज महासुख, मान रह्यौ सुख सेज पराई । स हुतासन तेज महा जिहि सेज अनेक अनंत जराई ॥ कित पूरी भई जु मिथ्यामति की इति भेद विग्यान घटा जु भराई । उमग्यौ समिता रस मेघ महा, जिह वेग ही आस हुतास सिराई ||२|| कवि का यह भी विश्वास है कि जीव अपने कर्मों के कारण ही पौद्गलिक पदार्थों में फँस गया है और अपने स्वरूप को भूल गया है। किसी दूसरे व्यक्ति अथवा वस्तु के द्वारा इसको भ्रम में नहीं डाला गया है और न दूसरों के द्वारा इसका उद्धार ही हो सकता है । जीव स्वयं मिथ्यात्व का विनाश करके अपने में स्थित परमात्मा का दर्शन कर सकता है : काहू न मिलायौ जीव करम संजोगी सदा । छीर नीर पाइयौ अनादि ही की धरा है | अमिल मिलाय जड़ जीव गुन भेद न्यारे । न्यारे पर भाव परि आप ही में धरा है । काहू भरमायौ नाहि, भम्यो भूल अपान ही । आपनै प्रकास थै विभाव भिन्न धरा है ॥ साचो अविनासी परमातम प्रकट भयौ । नायो है मिध्यात वस्याँ जहाँ ग्यान धरा है ॥ ६५ ॥ फुटकर रूपचन्द ने पदों की भी रचना की है, लेकिन इनकी संख्या निश्चित नहीं है। जयपुर के विभिन्न शास्त्र भांडारों में अब तक ६२ पद प्राप्त हो चुके हैं । इनको शीघ्र ही 'श्री दिगम्बर जैन अतिशय क्षेत्र जी महावीर जी जयपुर' से प्रकाशित किया जा रहा है। इसी प्रकार अभय जैन ग्रन्थालय बीकानेर में रूपचन्द १. रूपचन्द' लिखित बताया है। देखिए – अनेकान्त, वर्ष १०, किरण २, (गस्त १६४६ ) राजस्थान के जैन शास्त्र भांडारों की ग्रंथ सूची (भाग ३) की भूमिका, पृ० १८ ।
SR No.010154
Book TitleApbhramsa aur Hindia me Jain Rahasyavada
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVasudev Sinh
PublisherSamkalin Prakashan Varanasi
Publication Year
Total Pages329
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size60 MB
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