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________________ अपभ्रंश और हिन्दी में जैन-रहस्यवाद शास्त्री के नं२ और नं० ३ के भगवतीदास एक ही व्यक्ति थे, भले ही नं० १ के भगवतीदास पूर्ववर्ती और भिन्न पुरुष रहे हों। अपने एक अन्य लेख में तो शास्त्री जी ने चार के स्थान पर एक ही भगवतीदास का अस्तित्व स्वीकार किया है और 'भैया भगवतीदास' के 'ब्रह्म विलास' को भी बनारसीदास के साथो भगवतीदास की रचना बताया है। आपने लिखा है कि 'कविवर भगवतीदास पं० वनारसीदास के समकालीन विद्वान् ही नहीं, किन्तु उनके सहधर्मी पंच मित्रों में से तृतीय थे। कविवर की इस समय तीन रचनाएँ उपलब्ध हैं-अनेकार्थनाममाला, लघु सीतासतु और ब्रह्मविलास ।" रचनाएँ और उनके विषय : भगवतीदास की अधिकांश रचनाएँ श्री दिगम्बर जैन बड़ा मन्दिर मैनपुरी के शास्त्र भांडार में सुरक्षित एक गुटके में लिपिबद्ध हैं। यह गुटका स्वयं कवि द्वारा सं० १६८० में लिखा गया था। इससे स्पष्ट है कि इसमें संग्रहीत रचनाए स० १६८० के पूर्व लिखी जा चुकी थी। ये रचनायें निम्नलिखित हैं :-- 1) टंडाणारस. (२) बनजारा. (३) ग्रादित्तवतरासा (1) पखवाडे का रास, (५) दशलाक्षणी रासा, (६) अनुप्रेक्षा भावना, (७) खिचड़ी रासा, (८) अनन्तचतुर्दशी चौपाई, (९) सुगन्ध दसमी कथा, (१०) आदिनाथशान्तिनाथ विनती, (११) समाधि रास, (१२) आदित्यवार कथा, (१३) चूनड़ी, (१४) योगीरासा, (१५) अनथमी, (१६) मनकरहा रास, (१७) वीर जिनेन्द्र गीत, (१८) रोहिणी व्रत रामा, (१९) ढमाल राजमतीनेमीसुर, (२०) मज्ञानीढमाल । इनके अतिरिक्त आपकी तीन अन्य रचनाओं-- अनेकार्थनाममाला, लघु सीता सतु और मृगांकलेखा चरित्र-का पता चला है। इसमें से प्रथम दो ग्रन्थों की हस्तलिखित प्रतियां पंचायती मन्दिर' देहली के शास्त्र भांडार में और अन्तिम ग्रन्थ की प्रति अामेर शास्त्र भांडार, जयपुर में सुरक्षित है। अनेकार्थनाममाला की रचना मं० १६८७ में आषाढ़ कृष्ण तृतीया गुरुवार के दिन श्रावण नक्षत्र में शाहजहां के शासनकाल में हुई थी। इसी वर्ष 'लघु सीता सतु' भी लिखा गया। 'मृगांक लेखा चरित्र' अन्तिम रचना है। इसको हिसार नगर के १. देखिए., अनेकान्न वर्ग ५, किरण १-२ (फरवरी-मार्च, १९४२ ) में परमानन्द शास्त्री का लेख, कविवर भगौतीदाम और उनकी रचनाएँ. पु. १४ से १७ तक। मालह मा रु मतामियद, साढि तीज तम पाखि । गुरु दिन श्रवण नक्षत्र भनि, प्राति जोगु पूनिमावि ।६६|| माहिजहाँ के राजमहि, सिहाद नगरमझारि । अर्थ अनेक जु नाम की, माला भनिय विचारि॥६॥
SR No.010154
Book TitleApbhramsa aur Hindia me Jain Rahasyavada
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVasudev Sinh
PublisherSamkalin Prakashan Varanasi
Publication Year
Total Pages329
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size60 MB
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