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________________ अपश्चिम तीर्थंकर महावीर - 67 आवश्यकता है? मैं स्वयं ही महाराज की सेवा में उपस्थित हो जाऊँगा। दूत- नहीं........... नहीं.. ........... आपको नहीं आना है। यदि आप अपने पुत्रों को नहीं भेजते हैं तो युद्ध के लिए तैयार रहना। प्रजापति- युद्ध............... किस बात का............... ? दूत- आदेश नहीं मानने का। उसी क्षण बलदेव और वासुदेव दोनों क्रोध से आग-बबूला होते हुए, मार-पीट कर दूत को भगा देते हैं। दूत, पहुंचकर- राजन्! वे दोनों आने वाले नहीं हैं। आप भले ही युद्ध की तैयारी कर लें। अश्वग्रीव- अच्छा! तब रणभेरी बजाओ। राज्य में रणभेरी बजी। दोनों तरफ की सेनाएं युद्ध का तुमुल नाद करती हुई रथावर्त पर्वत के पास पहुंच गयीं। दोनों सेनाएं भीषण बाणों से एक-दूसरे को हताहत करने लगीं। खून की नदियां बहने लगीं। कटी पतंगों की तरह सैनिक धराशायी होने लगे। तब त्रिपृष्ठ ने सोचा, वास्तव में युद्ध तो अश्वग्रीव और हमारे बीच होना चाहिए। निर्दोष सैनिकों को मारने से क्या लाभ? तब त्रिपृष्ठ ने अश्वग्रीव को ललकारा- राजन्! युद्ध करना है तो हमारे साथ कीजिए। निर्दोष सैनिकों को मारने से क्या लाभ? तब अश्वग्रीव त्रिपृष्ठ के सामने रथ लेकर युद्ध हेतु उपस्थित हुआ। त्रिपृष्ठ ने एक-एक करके अश्वग्रीव के सब अस्त्र निष्फल कर दिये। तब त्रिपृष्ठ को मारने के लिए अश्वग्रीव ने चक्ररत्न फेंका। वासुदेव त्रिपृष्ठ ने उसे पकड़ लिया और उसी चक्ररत्न से अश्वग्रीव की गर्दन काट दी। उसी समय देवों ने पुष्पवृष्टि करते हुए घोषणा की, "अचल प्रथम बलभद्र और त्रिपृष्ठ प्रथम वासुदेव प्रकट हो गये हैं।"34 देव-वाणी सुनकर सर्वत्र जय-जयकार की ध्वनि व्याप्त हो गयी। तत्काल सब महीपति आये और उन्होंने बलदेव-वासुदेव को प्रणाम किया। तब वासुदेव ने अपने भुज-बल से दक्षिण पर अपना एकछत्र आधिपत्य कर लिया। आधिपत्य करने के पश्चात् त्रिपृष्ट वासुदेव पोतानपुर लौटे। तब सभी राजाओं ने और जनता ने अर्धचक्री वासुदेव
SR No.010152
Book TitleApaschim Tirthankar Mahavira Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAkhil Bharat Varshiya Sadhumargi Jain Sangh Bikaner
PublisherAkhil Bharat Varshiya Sadhumargi Jain Sangh
Publication Year2005
Total Pages259
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Biography, & Story
File Size10 MB
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