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________________ अपश्चिम तीर्थकर महावीर - 62 थी। अंग-अंग से सुकुमारता झलक रही थी। एक दिन वह अपने पिताश्री को प्रणाम करने गयी। जैसे ही पिता के चरणों में प्रणाम किया, पिता उसके रूप-लावण्य को देखकर मुग्ध हो गया। प्रणय की चिनगारी मन को छूने लगी, उसी प्रणय से समाकुल बन पिता ने कामुकता से सहलाते हुए अपनी पुत्री को गोद में बिठा लिया। मन में वासना की तरंगें उठने लगीं। निष्कुल बना वह मन में ठान लेता है कि मुझे अपनी लड़की के साथ विवाह करना है। निश्चय करके थोड़ी देर बाद लड़की को विदा कर दिया। काम-वासना से दूषित चित्त वाला वह रिपुप्रतिशत्रु राजा चपल बन रहा था। एक-एक घड़ी मृगावती के बिना उसे भारी लग रही थी। चिंतन चल ही रहा था कि मृगावती को कब पत्नी बनाऊँ? कैसे बनाऊँ? यदि ऐसे ही कर लेता हूं विवाह, तो प्रजा रुष्ट होगी। मेरा राज्य से निर्वासन भी हो सकता है। तब प्रजा की कूटनीति से अनुमति लेकर ही कार्य करना है। ऐसा चिंतन कर एक दिन नृपति राज्य-सभा में गये। सभा जुड़ी थी। राजा ने वृद्धजनों से प्रश्न किया कि बताओ मेरे स्थान पर जो रत्न उत्पन्न होता है वह किसका कहलाता है? वृद्धजनों ने कहा- राजन्! आपका। इस प्रकार तीन बार कहने के पश्चात् जब वृद्धजनों ने एक ही उत्तर दिया तब राजा ने सेवकों से कहा- जाओ, बुलाओ मृगावती को। मुझे उससे विवाह करना है। नगर के सब लोग लज्जित हो गये। गर्दन झुकाकर नीचे बैठ गये। लेकिन कामी राजा के मन में लज्जा को कोई स्थान नहीं था। कामुकता के साथ लज्जा कभी निवास नहीं करती। आखिरकार मृगावती राजदरबार में आई। वहीं जनता के समक्ष राजा ने अपनी पुत्री के साथ गन्धर्व विधि से विवाह कर लिया। कुल–गौरव में दाग लगने से महारानी भद्रा अपने पुत्र अचलबलदेव को लेकर दक्षिण में चली गयी। अचलकुमार ने माहेश्वरी नामक नवीन नगरी निर्मित की और वहां पर अपनी माता भद्रा को रखा और स्वयं पिता के पास चला गया। इधर लोगों ने रिपुप्रतिशत्रु राजा का नाम बदलकर प्रजापति रख दिया । प्रजा का तात्पर्य पुत्रीरूप
SR No.010152
Book TitleApaschim Tirthankar Mahavira Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAkhil Bharat Varshiya Sadhumargi Jain Sangh Bikaner
PublisherAkhil Bharat Varshiya Sadhumargi Jain Sangh
Publication Year2005
Total Pages259
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Biography, & Story
File Size10 MB
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