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________________ अपश्चिम तीर्थकर महावीर - 60 सीमा-रक्षा का कार्य सम्हलाकर पुनः लौटते हुए पुष्पकरंदक उद्यान में जाने को उद्यत होता है। द्वारपाल-रोककर, अन्दर.........राजपुत्र विशाखनंदी हैं। क्या? विशाखनंदी? विश्वभूति ने पूछा। हां। ओह! तब मेरे को उद्यान से निकालने के लिए ही यह रणभेरी बजी। यह कूटनीति है, कूटनीति।। पास में कैथ वृक्ष को क्रोधावेश में एक मुष्टि प्रहार करता है। इतने फूल जमीन पर गिरते हैं कि आस-पास की भूमि फूलों से व्याप्त हो जाती है। तब दांत मिसमिसाते हुए द्वारपाल से- यदि बड़े पिताश्री पर मेरी भक्ति नहीं होती तो आज.......... कैथ के फूलों की तरह तुम्हारा मस्तक भूमि पर पटक देता....... पर मुझे....... ऐसे.... ........ कपटपूर्ण भोग नहीं भोगना है। इस प्रकार कहता हुआ विश्वभूति चला जाता है। मुनि संभूति के पास पहुंचकर संयम ग्रहण कर लेता है |24 जब राजा विश्वनंदी को ज्ञात हुआ कि युवराज-पुत्र विश्वभूति साधु बन गया, तब अपने लघुभ्राता सहित राजा को मनाने गया । राज्य लेने की प्रार्थना की, लेकिन......... वह तो अब पूर्ण विरक्त बन चुका था। उसने राज्य-लाभ की आकांक्षा से संयम परित्याग करना स्वीकार नहीं किया। गुरु की सन्निधि में विहार कर दिया। शूरवीर पुरुष जो भी कदम उठाते हैं, वे सहर्ष राह पर चलते हैं। चाहे लाखों संकट आयें, लेकिन झुकते नहीं; थकते नहीं। वे संघर्षों में भी अडिग रहकर अपनी जीवनयात्रा गतिमान बनाये रखते हैं। विश्वभूति संयम लेकर कर्म काटने में तत्पर बन गया। विविध प्रकार की तपश्चर्या द्वारा अपनी बलिष्ठ देह को कृशकाय बना लिया। शरीर कृश होने पर भी मन बलवान बना था। मासखमण की तपस्या चल रही थी। इधर विशाखनंदी राजपुत्र भोग भोगते हुए अपना समययापन कर रहा था। उसी क्रम में मथुरा के राजा की कन्या के साथ उसका विवाह होने वाला था । बरात सजाकर वह मथुरा के पास, जहां मण्डप
SR No.010152
Book TitleApaschim Tirthankar Mahavira Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAkhil Bharat Varshiya Sadhumargi Jain Sangh Bikaner
PublisherAkhil Bharat Varshiya Sadhumargi Jain Sangh
Publication Year2005
Total Pages259
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Biography, & Story
File Size10 MB
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