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________________ अपश्चिम तीर्थंकर महावीर वे प्रथम प्रथम वासुदेव! मेरे पिता प्रथम चक्रवर्ती और दादा तीर्थंकर......... इस प्रकार भुजा-स्फोट करता हुआ, नृत्य करता हुआ मरीचि नीच गोत्र का उपार्जन कर लेता है । ..... -- मरीचि अब भी भगवान् ऋषभदेव के साथ ग्रामानुग्राम विहार करता हुआ, सम्यक् प्ररूपणा करता हुआ विहरण करता है। समय अपनी गति से गतिमान था । भगवान् ऋषभदेव आयुष्य पूर्ण कर निर्वाण प्राप्त हुए । तब भी मरीचि, जो भी भव्य जीव आते, उन्हें प्रतिबोधित कर साधुओं के पास भेज देता था । यही क्रम निरन्तर चलता रहा । काल का चक्र अपनी गति से प्रवाहमान था । काल के झोंके कभी 'मनुष्य को सुख के पालने में झुलाते हुए आनन्दमय बनाते हैं तो कभी क्रूर झोंके सशक्त को भी अशक्त बनाकर उसे मजबूर कर देते हैं। यही हुआ मरीचि के साथ । हृष्ट-पुष्ट, सुगठित, सुडौल देह व्याधिग्रस्त हो गयी। आवश्यकता हुई कोई परिचर्या करे जो प्रतिबुद्ध हुए उनको भगवान् ऋषभदेव के साधुओं के पास भेज दिया और वे साधु, वे तो परिचर्या करने लेकिन करे कौन कैसे आ सकते थे । 54 ........... चिन्तन बदला मरीचि का । ओह ! जिन साधुओं को मैं श्रेष्ठ बताकर उनके पास शिष्य भेजता रहा, वे साधु कितने निदर्य स्वार्थी .? आज मैं अस्वस्थ हूं तो आंख उठाकर देखते भी पूछते नहीं नहीं-नहीं, ऐसा नहीं सोचना । अरे! ये नहीं तो खुद परिचर्या नहीं करते इनका आचार भिन्न है मुझ जैसे शिथिलाचारी की परिचर्या चाहिए नहीं कर सकते तब क्या करना बस, यही कि स्वास्थ्य ठीक होने पर सेवा करने के लिए एक शिष्य बनाना है। बस, यही चिन्तन करते हुए अपना दुःख हलका करने का प्रयास करता है । असातावेदनीय का उदय क्षीण हुआ । साता की शांत लहरें जख्मी दिल में हवा करने लगी। मन में धुन थी किसी को अपना बनाने की, अपनत्व के मधुर झोंकों से भाव आन्दोलित हो रहे हैं। अपना बनाना है. लेकिन क्या कोई अपना बन पायेगा ? के धागे में पिरोना सरल है, लेकिन दायित्वों को निभाना सुदुष्कर है, अपनत्व
SR No.010152
Book TitleApaschim Tirthankar Mahavira Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAkhil Bharat Varshiya Sadhumargi Jain Sangh Bikaner
PublisherAkhil Bharat Varshiya Sadhumargi Jain Sangh
Publication Year2005
Total Pages259
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Biography, & Story
File Size10 MB
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