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________________ अपश्चिम तीर्थंकर महावीर – 197 13. तब उसने अनुकूल परीषह पैदा करते हुए सिद्धार्थ और त्रिशला के रूप की विकुर्वणा की और वे करुण विलाप करते हुए कहने लगे- हे तात! तुम यह दुष्कर कार्य क्यों कर रहे हो? तुम संयम का परित्याग कर हमारी परिपालना करो। तुम्हारा भाई नन्दिवर्धन हमें वृद्धावस्था में छोड़कर चला गया है। इस प्रकार विलाप से प्रभु अपने मार्ग से विलुप्त नहीं हुए। 14. तब उस दुराचारी संगम ने मनुष्यों से व्याप्त एक छावनी (शिविर) की विकुर्वणा की। उनमें से एक रसोइये के मन में चावल पकाने का विचार हुआ। उसको चूल्हा बनाने के लिए पत्थर नहीं मिले तब उसने प्रभु के दो चरणों का चूल्हा बनाकर उस पर चावल का बर्तन रखा और पैरों के बीच अग्नि प्रज्वलित की। वह अग्नि इतनी विस्तृत हो गयी कि पर्वत के दावानल की तरह हो गयी। प्रभु के पैर अग्नि से जलने लगे लेकिन वे पैर अग्नि से शोभाहीन नहीं हुए अपितु अग्नि में तप्त सुवर्ण की तरह और अधिक शोभायमान हो गये। 15. उस अधम देव ने एक चाण्डाल के रूप की विकुर्वणा की। उसने प्रभु के कंठ, कान, भुजा और कंधों पर पनियों के पिंजर लटकाये। उन पक्षियों ने चोंचों और नखों से प्रहार करकं नु के जन्पूर्ण शरीर को पिंजरों की तरह सैकड़ों छिद्र वाला कर दिया । उन्नतीन ध्यान से विचलित नहीं हुए। 16. उस दुष्ट देव ने महाउत्यात करने की चन्द्धन की विकुर्वणा की। वह विशाल वृक्षों को तृणवत आसान उखाल्ली हुई और दिशाओं में पत्थर और कंकर फेंकती दुई जन तक नयंकर काली-पीली आंधी के रूप में व्हनं कलेवनान को झकास में उछाल-उछाल कर नीचे पटकने लायक बन रहे। 17. तब उस पापिष्ट नकल कर हवा की दिद की और समुद्र के आवत की तह तय किन न.किंचित भी विचलित न्ह हः - ननन में चिन्तन कि अहो! ये नुनि सहन कटा लन्न हैं, इन् विचलित करने का समय किन जर वाले ये नुनि नलचल नहर
SR No.010152
Book TitleApaschim Tirthankar Mahavira Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAkhil Bharat Varshiya Sadhumargi Jain Sangh Bikaner
PublisherAkhil Bharat Varshiya Sadhumargi Jain Sangh
Publication Year2005
Total Pages259
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Biography, & Story
File Size10 MB
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