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________________ अपश्चिम तीर्थकर महावीर – 195 रज को उसने दूर कर दिया। 2. उसके बाद उसने वज्रमुखी ऐसी चींटियां उत्पन्न की जिनके मुख बड़े तीक्ष्ण थे। उन चींटियों से प्रभु के शरीर को व्याप्त कर दिया। जैसे कपड़े में डाली गयी सूई वस्त्र के आरपार निकल जाती है, वैसे ही वे चींटियां आर-पार छेद करने वाले तीक्ष्ण डंकों से प्रभु को काटने लगीं लेकिन उसका यह उपसर्ग प्रभु को विचलित नहीं करने से निष्फल गया। 3. तब उसने डांस मच्छरों की विकुर्वणा की। वे मच्छर तीक्ष्ण डंकों से प्रभु को काटने लगे तब प्रभु के शरीर से श्वेत रुधिर ऐसे बहने लगा मानो किसी पर्वत से श्वेत जल संभृत निर्झर झर रहा हो। प्रभु ने इस उपसर्ग को भी समभाव से सहन कर निष्फल कर दिया। 4. तब उसने प्रचण्ड चोंच वाली कठिनाई से हटाने योग्य दीमकों की विकुर्वणा की। वे दीमकें प्रभु के शरीर पर मुख लगाकर ऐसी चिपक गयीं मानो शरीर से उठी हुई रोमपंक्ति हों लेकिन भगवान अडोल बने रहे। 5. तब प्रभु को ध्यान से विचलित करने के निश्चय वाली वह दुर्बुद्धि संगम देव बिच्छुओं की विकुर्वणा करता है। वे अग्नि में तपाये हुए भाले की तरह तीक्ष्ण पूंछ एवं कांटों से भगवान के शरीर का भेदन करने लगे लेकिन प्रभु अकम्प रहे। 6. तब बहुत दांत वाले नेवलों की विकुर्वणा की। वे नेवले खी! खी! ऐसे भयंकर शब्दों को बोलते हुए भगवान के शरीर के मांस को काट-काट कर टुकड़े-टुकड़े कर गिराने लगे पर ध्यानस्थ प्रभु डोलायमान नहीं हुए। 7. तब अत्यधिक क्रोधित होकर उसने यमराज के भुजदण्ड जैसे भयंकर और मोटे फन वाले सर्पो की विकुर्वणा की। उन नागों ने पैर से लेकर मस्तकपर्यन्त शरीर को अपने पाश में आबद्ध कर लिया और फण फट जाये इतने जोर से प्रभु पर फण का प्रहार किया तथा डाढ़ टूट जाये ऐसी जोर से दाढ़ों द्वारा प्रभु को डंक लगाने लगे, लेकिन प्रभु ध्यानस्थ रहे। 8. तब उसने वज जैसे दांत वाले चूहों की विकुर्वणा की। वे
SR No.010152
Book TitleApaschim Tirthankar Mahavira Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAkhil Bharat Varshiya Sadhumargi Jain Sangh Bikaner
PublisherAkhil Bharat Varshiya Sadhumargi Jain Sangh
Publication Year2005
Total Pages259
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Biography, & Story
File Size10 MB
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