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________________ अपश्चिम तीर्थंकर महावीर 190 संयोजना अधिकरणिकी और तलवार एवं उसकी मूठ बनाने की क्रिया को निवर्तन अधिकरणिकी क्रिया कहते हैं । जो क्रिया किसी पर द्वेष करने पर की जाती है वह प्राद्वेषिकी क्रिया है । वह भी दो प्रकार की है । 1. जीव प्राद्वेषिकी और 2. अजीव प्राद्वेषिकी । किसी जीव पर द्वेष करके जो क्रिया की जाती है वह जीव प्राद्वेषिकी और अजीव पर द्वेष करके जो क्रिया की जाती है उसे अजीव प्राद्वेषिकी क्रिया कहते हैं । किसी व्यक्ति को प्रताड़ना आदि के द्वारा परिताप देना परितापनिकी क्रिया है । वह भी दो प्रकार की है । स्वहस्त परितापनिकी और परहस्त परितापनिकी । अपने हाथ से किसी को परिताप देना स्वहस्त परितापनिकी है । दूसरों के हाथ से किसी को परिताप दिलाना परहस्त परितापनिकी है । किसी जीव की घात करना प्राणातिपातिकी क्रिया है । वह दो प्रकार की है । स्वहस्त प्राणातिपातिकी और परहस्त प्राणातिपातिकी । अपने हाथ से जीवों का वध करना स्वहस्त प्राणातिपातिकी है तथा दूसरों के हाथों से जीवों का वध कराना परहस्त प्राणातिपातिकी है । ' I 1 इन पांचों में से एक भी क्रिया शीतललेश्या के प्रयोग में नहीं लगती क्योंकि इसमें जीव विराधना का कोई प्रसंग नहीं अपितु जीवरक्षा का प्रसंग है। जीवरक्षा पाप नहीं अपितु धर्म है । जब गोशालक को पूर्व में भी बांध कर बांस के वन में फेंक दिया तब करुणानिधि महावीर अनुकम्पा करके पीछे मुड़कर देखते हैं और वहीं खड़े होते हैं। उनकी करुणा को देखकर ही लोग गोशालक को बन्धनमुक्त करते हैं। इस प्रकार रक्षा करने में धर्म है, पाप नहीं। भम्रविध्वंसनकार का यह मानना कि भगवान गोशालक को बचाकर चूक गये और उन्हें क्रिया लगी, यह शास्त्रविरुद्ध है । आचारांग में स्वयं भगवान महावीर ने यह फरमाया है कि मैंने छद्मस्थावस्था में किसी पाप का सेवन नहीं किया। साथ ही भगवान छद्मस्थ अवस्था में कषाय-कुशील - नियंठा थे । कषाय - कुशील - नियंठा दोष के अप्रतिसेवी होते हैं । अतः भगवान को चूका कहना, यह मतिकल्पित धारणा है । भ्रमविध्वंसनकार यह कहते हैं कि रक्षा करने में धर्म होता तो भगवान ने अपने सामने जलकर भस्म होने वाले सुनक्षत्र और सर्वानुभूति को क्यों नहीं बचाया? तो इसका स्पष्टीकरण यह है कि भगवान केवलज्ञानी थे । उनकी मृत्यु वैसे ही होनी अवश्यंभावी थी । तव उन्हें भगवान कैसे वचा सकते थे? भ्रमविध्वंसनकार कहते हैं कि तेजोलेश्या को बुझाने में भी आरम्भ हुआ लेकिन उनका कहना ठीक नहीं है क्योंकि भगवती सूत्र, शतक सात,
SR No.010152
Book TitleApaschim Tirthankar Mahavira Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAkhil Bharat Varshiya Sadhumargi Jain Sangh Bikaner
PublisherAkhil Bharat Varshiya Sadhumargi Jain Sangh
Publication Year2005
Total Pages259
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Biography, & Story
File Size10 MB
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