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________________ अपश्चिम तीर्थकर महावीर 185 तपस्वी को क्रोध आया और उसने गोशालक पर तेजोलेश्या छोड़ी। भगवान् ने शीतल लेश्या से उसकी रक्षा की' । प्रभु तो पापियों की भी रक्षा करने वाले थे। उनकी इस अनुकम्पा से प्रभावित होकर वह तपस्वी प्रभु के पास आया और निवेदन किया कि भगवन्! मुझे आपके अतिशय प्रभाव का ज्ञान नहीं था। अब मैं आपके अतिशय को जान रहा हूं तो आप मेरे इस कार्य के लिए क्षमा करना । इस प्रकार बारम्बार क्षमायाचना करता हुआ तापस लौट गया । तदनन्तर गोशालक ने प्रभु से पूछा- भगवन्! तेजोलेश्या की लब्धि कैसे प्राप्त होती है? भगवान ने फरमाया- जो मनुष्य छह महीने तक निरन्तर वेले- बेले पारणा करता है, पारणे में एक मुट्ठी उड़द और एक अंजलि पानी पीता है उसको छह मास के अन्त में विपुल तेजोलेश्या लब्धि प्राप्त होती है' । स्थानांग सूत्र में भी तेजोलेश्या लब्धि-प्राप्ति के तीन कारण कहे हैं। यथा- 1. आतापना (शीत तापादि रूप आतापना लेने) से, 2. शांति-क्षमा (क्रोध - निग्रह) से, 3. अपानकेन तपकर्म (छट्टे-छट्टे भक्त तपस्या करने) से । इस प्रकार करुणानिधि प्रभु ने पीड़ा पहुंचाने वाले उस गोशालक को भी अनुकम्पा करके मृत्यु से बचा दिया और तेजोलेश्या प्राप्त करने की विधि बतलाई । - तत्पश्चात् कर्मग्राम से विहार कर भगवान गोशालक सहित सिद्धार्थपुर नगर पधारे। मार्ग में पहले जहां तिल का पौधा था, वह स्थान आया तब गोशालक ने कहा कि भगवन्! आपने जिस तिल के पौधे का उगने को कहा था वह तिल का पौधा तो उगा ही नहीं है। प्रभु ने कहा- उग गया है। तब गोशालक नहीं माना। उसने तिल के पौधे की इधर-उधर देखा, तब पौधा दिखा दिखने पर उसकी फली को मीरा तो उसमें सात तिल दिखाई दिये। तब गोशालक ने सिद्धान्त बना कि शरीर का परिवर्तन करके जीव पुनः यहां उत्पन्न हो जाता C गोशालक ने चिन्तन किया- प्रभु के साथ रहने से उनक उभी उभी मुडी पेललेएण की लधि पारिए के साकार गोशालय प्रभुको छोरी सीमा उच झाल में उपग्रह घर पर प्रेस
SR No.010152
Book TitleApaschim Tirthankar Mahavira Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAkhil Bharat Varshiya Sadhumargi Jain Sangh Bikaner
PublisherAkhil Bharat Varshiya Sadhumargi Jain Sangh
Publication Year2005
Total Pages259
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Biography, & Story
File Size10 MB
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