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________________ आपणच तीर्थकर महावीर 183 हो से घर आंगन गुंजायमान हुआ । गोशंखी ने महोत्सव किया और वह चालक धीरे-धीरे वडा होने लगा । इधर चोर उस वेशिका को चम्पापुरी में ले गये और चौराहे पर उसे बेचने की बोली लगायी। एक वेश्या ने उसे देखा और अपने काम में आने योग्य जानकर खरीद लिया । वेश्या ने उसे अपना समस्त कार्य सिखलाकर वेश्या कर्म में प्रवीण बना दिया। धीरे-धीरे उसने अपने कौशल से ख्याति प्राप्त की और चम्पा की एक प्रख्यात गणिका बन गयी। वेशिका का पुत्र गोशंखी के यहां धीरे-धीरे बड़ा हो गया और वह व्यापार करने में दक्ष बन गया। एक दिन वह घी का गाड़ा भरकर बेचने के लिए चम्पा नगरी आया। वहां उसने सुन्दर रमणियों के साथ पुरुषों को विलास करते देखा तो काम-वासना जागृत हो गयी। उसी का पोषण करने हेतु गणिका बस्ती में गया। अपनी मां वेश्या को देखा और उसके साथ भोग भोगादि की वासना उदीयमान हो गई। उसने उस वंशिका को एक आभूषण दिया और रात्रि में स्नान विलेपनादि करके वंशिका से मिलने को जाने लगा । भार्ग में गमन करते हुए उसका एक पैर विष्टा में गिरा लेकिन गोह के उस प्रबल नशे में उसे कुछ भी पता नहीं चला। तब कुलदेवता ने उसे प्रतिबंधित करने का निश्चय किया और एक गाय तथा बछड़े रूप बनाया। उस बछडे को देखकर वह लड़का बछडे के साथ-साथ फेर रखने लगा। तब बछडा मानव वाणी में अपनी मां से बोला- मातुश्री देखिए यह लड़का अपने विष्ठायुक्त पैर को मेरे पैर के साथ रख रहा है। उसकी मां मानव वाणी ने बाली बेटा, यह इसका अपकृत्य कृषि नहीं। यह तो मोहान्ध वनकर अपनी मां के साथ काम भोग भागने जा रहा है। उस अपकृत्य का क्या कहना? उस लडके ने गोवत्स और गाय मनुष्य वाणी में बोल रहे हैं। वण इनका यही इसकी परीक्षा करनी चाहिए। इसी भाव से यह पेश्या समदेश्य अपने काम-कक्ष से उसका मन प कार करते ही परतली ने कहा- पहले से सार दोगी में तुम। अ
SR No.010152
Book TitleApaschim Tirthankar Mahavira Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAkhil Bharat Varshiya Sadhumargi Jain Sangh Bikaner
PublisherAkhil Bharat Varshiya Sadhumargi Jain Sangh
Publication Year2005
Total Pages259
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Biography, & Story
File Size10 MB
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