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________________ अपरितम तीर्थकर महावीर - 135 "रे चण्डकौशिक! बुज्झ! बुज्डा!" अरे चण्डकौशिक जागो-जागो, क्यों नहीं जागते। तो भगवान के ये वचन श्रवण कर वह चिन्तन करने लगा, अरे! यह क्या कह रहा है? चण्डकौशिक जागो-जागो, क्यों नहीं जागते? में चण्डकौशिक कब था? यों चिन्तन करता अतीत में चला गया और जातिरमरण ज्ञान हो गया । तब प्रभु की तीन बार प्रदक्षिणा की। तदनन्तर मन में अनशन स्वीकारने (संथारा करने) का निर्णय किया। प्रभु ने अपनी सौम्य दृष्टि से उसको निहारा । तत्पश्चात् सर्व क्रिया से रहित होकर सोचा, यदि मेरा मुंह वांबी से बाहर रहेगा तो मेरी विषमय दृष्टि किसी पर पड़ेगी इससे किसी प्राणी का प्राणनाश हो सकता है। इसलिए अपने मुंह को बिल में (राख में) छिपा लिया और समता धारण कर आत्ल चिन्तन में लीन बन गया। आहारादि का परित्याग कर आजीवन अनशन कर पश्चात्ताप की ज्वाला में जलने लगा। सर्प आत्मचिन्तन में लीन था। भगवान् ने देखा कि जब तक इसका गरणकाल नहीं आता है तब तक मुझे यहीं रुकना चाहिए ताकि इसे आत्मशांति होगी। यही सोचकर प्रभु महावीर वहीं पर ध्यानस्थ बनकर खडे रहे । प्रभु को निरुपद्रव जानकर ग्वाले आदि आश्चर्यचकित होकर शीघ्र ही वहां आये और देखा कि सभी प्राणियों को पीड़ित करने पाले सर्प को पत्थरों से मारा तो भी समभावी नाग निश्चल रहा तब वे माले प्रभु के समीप आये। उसके शरीर को लाठियों से स्पर्श किया लेकिन उसका समभाव-मण नहीं टूटा तव ग्वालों ने सारी वार्ता लोगो से कही। लोग दहा उसे देखने के लिए अलग। बालों की बहुत सारी किस मार्ग से ही देखने के लिए जाने लगी। वे स्त्रियां जाती हुई उस समीर पर मषित संवादी उस घी की सुगन्ध से गुर पाल दिया की पावर र मटने लगी! संगालो ससस की ददन्ना उत्पन्न हो रही है कदम मारो कोल्लबार लाल
SR No.010152
Book TitleApaschim Tirthankar Mahavira Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAkhil Bharat Varshiya Sadhumargi Jain Sangh Bikaner
PublisherAkhil Bharat Varshiya Sadhumargi Jain Sangh
Publication Year2005
Total Pages259
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Biography, & Story
File Size10 MB
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