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________________ अपश्चिम तीर्थकर महावीर - 122 प्रकार कहकर भावपूर्वक प्रणाम किया और भावविभोर हो पुनः लौट गया। तदनन्तर प्रभु ने मोराक सन्निवेश की तरफ विहार किया । संदर्भ : साधनाकाल का प्रथम वर्ष अध्याय 11 दीक्षा के समय प्रभु ने जो देवदूष्य वस्त्र धारण किया था उस सम्बन्ध में विभिन्न धारणाएं सम्मुख आती हैं। आचारांग सूत्र एवं कल्प सूत्र के मूल पाठ में देवदूष्य वस्त्र प्रभु ने ब्राह्मण को दिया, ऐसा उल्लेख नहीं है। परन्तु आवश्यक चूर्णि, आवश्यक वृत्ति, चउपन्नमहापुरुष चरियं, त्रिषष्टि शलाका पुरुष चारित्र और कल्प सूत्र की टीकाओं में ऐसा उल्लेख है कि जब दीक्षा लेकर प्रभु क्षत्रियकुण्ड से विहार कर कूर्मारग्राम पधार रहे थे तब मार्ग में राजा सिद्धार्थ का मित्र सोम नामक वृद्ध ब्राह्मण मिला। उसने प्रभु से निवेदन किया- भगवन्! आप अनन्त करुणानिधान हैं। मैं असहाय दीन-हीन-दरिद्र ब्राह्मण हूं। मेरे पास खाने को अन्न नहीं, पहनने को वस्त्र नहीं और रहने को मकान नहीं है। प्रभो! जिस समय आपने निरन्तर एक वर्ष तक दान दिया उस समय मैं धन कमाने की आशा से परदेश गया था। लेकिन कुछ भी कमा नहीं पाया और हताश एवं निराश होकर लौट आया। घर आने पर पत्नी ने दुत्कारते हुए कहा- अरे! यहां पर इतने दिन सोने की वर्षा हो रही थी तव आप कहां गये। अब भी कुछ नहीं बिगड़ा, अब भी चलो, जाओ वे करुणा निधान महावीर आप को अवश्यमेव कुछ देंगे। बस, भगवन! इसी आशा से आपके पास आया हूं। तब प्रभु वीर ने कहा- भद्र! इस समय मैं अकिंचन भिक्षु हूं। तव ब्राह्मण ने कहा- क्या कल्पवृक्ष के समीप आकर भी मेरी मनोवांछा पूर्ण नहीं होगी? यह कहते-कहते उसकी आंखें छलछला गयीं। अविरल अश्रुधारा वहने लगी और प्रभु के चरणों में लिपट गया। तभी भगवान ने करुणा से अभिभूत होकर देवदूष्य चीवर का अर्ध भाग ब्राह्मण को दे दिया। अत्यन्त हर्षित होता हुआ वह ब्राह्मण उस चीवर को ले गया। अपनी ब्राह्मणी को दिखाया। व्राह्मणी भी अत्यन्त प्रमुदित हुई। व्राह्मण ने उस वस्त्र के छोर को ठीक करने के लिए रफूगर को दिया। रफूगर ने उस चीवर को देखा और उसकी चमक-दमक देखकर आश्चर्यचकित हो गया। तब ब्राह्मण से पूछा कि तुमने यह कहां से प्राप्त किया है? ब्राह्मण ने सारी वात यथावत् सुना दी। तब रफूगर ने कहा कि तुम पुनः भगवान् महावीर के
SR No.010152
Book TitleApaschim Tirthankar Mahavira Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAkhil Bharat Varshiya Sadhumargi Jain Sangh Bikaner
PublisherAkhil Bharat Varshiya Sadhumargi Jain Sangh
Publication Year2005
Total Pages259
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Biography, & Story
File Size10 MB
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