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________________ ८० परीक्षा में सर्वप्रथम उत्तीर्ण हुआ है' जब इस प्रकार से कहेंगे तब उसके वर्ग की अपेक्षा से यह 'सत्यवचन' हे । लेकिन दूसरी कक्षाओ के परिणाम के बारे में जब हम विचार करेगे तब, दूसरी पेक्षा से, वह 'ग्रसत्य वचन' भी है । एक दूसरी बात ले । सभी लोग इस बात को अवश्य स्वीकार करेगे कि एक चीज जिस आधार पर टिक रही हो वह ? उस आधार से कभी भिन्न हो ही नही सकती । शरीर का सारा हिस्सा, ग्रपने दो पैरो पर ग्राधार रखकर चलता है तथा स्थिर रह सकता है । यहाँ पैर, क्या उसके शरीर से भिन्न है ? कदापि नही | ठीक इसी तरह, सत्य का अस्तित्व असत्य के आधार पर ही निर्भर है । इस वात को बड़े गौर से सोचिये । यदि 'असत्य' का अस्तित्व न होता तो फिर 'सत्य' की क्या आवश्यकता थी ? यदि असत्य न होता तो फिर 'सत्य' की भला कौन पूछ करता ? जगत् में 'असत्य' है इसीलिये 'सत्य' है 'सत्य' है इसीलिये 'असत्य' है । दोनो का अस्तित्व एक दूसरे पर ही निर्भर है । यदि दोनो मे से एक को दूर कर दे तो दूसरा स्वय श्रदृश्य हो जाता है । एक की अनुपस्थिति में दूसरा निरर्थक बन जाता है । इससे यह हमारी समझ मे स्पष्ट आ जायेगा कि 'सत्य' और 'असत्य' दोनो एक ही में समाये हुए है । एक साथ हिले मिले है । सत और असत् ये दोनो अलग-अलग तत्व नही है इसका स्पष्ट दर्शन तो हमे तब होगा जब कि हम अनेकातवाद के आधार पर उनकी जाच करे। एक का अस्तित्व दूसरे के अस्तित्त्व
SR No.010147
Book TitleAnekant va Syadvada
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandulal C Shah
PublisherJain Marg Aradhak Samiti Belgaon
Publication Year1963
Total Pages437
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Philosophy
File Size13 MB
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