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________________ ४६ I गई है | तीर्थंकर भगवत भी जब उपदेश देना आरम्भ करते है तब इस 'चतुविधि' सघ को पहले नमस्कार करते है । इसमे पूर्णतया लोकशासनवाद प्रतिष्ठित है । जैन धर्म मे 'स्त्री' और 'पुरुष' के बीच भी किसी प्रकार का भेदभाव नही रखा गया । (४) जैसा कि कुछ पाश्चात्य विद्वान मानते है, जैनधर्म और जैन तत्त्वज्ञान सिर्फ ढाई हजार वर्ष से ही प्रचलित नही । जैनो के प्रतिमतीर्थकर श्री महावीर के समय से ही जैन तत्त्वज्ञान अस्तित्व मे नही आया । श्री महावीर तो इस युग के प्रतिम-चौबीसवे तीर्थकर थे । वर्तमान मुख्य काल-विभाग के प्रथम तीर्थकर श्री ऋषभदेव को हुए भी ग्राज गरिणत लाखो वर्ष बीत गये । (५) श्री ऋषभदेव से लेकर श्री महावीर तक जो चौबीस तीर्थकरो का काल-निर्गमन हुआ उससे भी पूर्व जैन धर्म का अस्तित्व था । (६) जैन दार्शनिको ने काल विभाजन करते समय उसके दो विभाग किये है | एक को उत्सर्पिणी तथा दूसरे को अवसर्पिणी नाम दिया गया है। ये दोनो मिल कर एक कालचक्र पूरा होता है । ऐसे अनेक कालचक्र अनादि काल से चले आ रहे है, और अनन्त काल तक चलते रहेगे । काल-चक्र के ये दो विभाग उत्सर्पिणी और अवसर्पिणी भी अनादिकाल से चलते आये है और अनत काल तक चलेगे । इन दोनो को मिला कर एक कालचक्र वनता है, ऐसे अगणित असख्य काल चक्र हो गये है, और होते रहेगे, इसकी कोई सीमा नही है । प्रत्येक उत्सर्पिणी भीर अवसर्पिणी काल-विभाग मे
SR No.010147
Book TitleAnekant va Syadvada
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandulal C Shah
PublisherJain Marg Aradhak Samiti Belgaon
Publication Year1963
Total Pages437
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Philosophy
File Size13 MB
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