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________________ अवक्तव्य है'-यो तीन तरह से विवरण किया गया है। पाचवे भग में पहला और चोथा आता है, छठे में दूसरा और चौथा पाता है, और सातवे भग मे पहले और दूसरे को चोथे के साथ जोडा गया है। क्या यहाँ पहला, दूसरा और तीसरा ये तीनो चौथे भग के माथ जोड कर एक पाठग भग नही बनाया जा सकता? उत्तर-तीसरे भग मे पहले और दूसरे भग के दोनो सापेक्ष स्वरूपो का जोड-सधीकरण है ही। अतएव पाठवी दृष्टि के लिए अवकाश नही रहता। प्रश्न-चौथे भग मे जो 'अवक्तव्यता' बताई गई है, उसी तरह क्या एक और जोड कर 'वक्तव्यता' नहीं बताई जा सकती? उत्तर-'श्रवक्तव्यना' भी एक प्रकार की वक्तव्यता ही है। और भी, इसमे जो प्रवक्तव्यता बताई गई है वह 'स्यात्' शब्द के अधीन होने से सापेक्ष है। व्यवहार मे कोई व्यक्ति जव कहता है कि "मेरे पास अपनी भावनाएं व्यक्त करने के लिए शब्द नहीं है।" तव उसमे अवक्तव्यता की जो सूचना है, वह एक प्रकार की बक्तव्यता ही है। इसलिए इसमे वक्तव्यता को अलग बताना न आवश्यक है, न युक्तियुक्त । साथ ही इन सात भगो मे जहाँ अवक्तव्यता नहीं है, वहाँ वक्तव्यता समाविष्ट ही है । इसलिए उसका अलग स्थान नहीं रहता। प्रश्न-एक ही वस्तु अच्छी और बुरी कही जाय-यह बात तो समझ मे आती है, परन्तु एक ही वस्तु को छोटी और वडी कैसे वताया जा सकता है ? उत्तर-~पर चतुष्टय की अपेक्षा से एक ही वस्तु को छोटी
SR No.010147
Book TitleAnekant va Syadvada
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandulal C Shah
PublisherJain Marg Aradhak Samiti Belgaon
Publication Year1963
Total Pages437
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Philosophy
File Size13 MB
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