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________________ ३६१ को 'मुक्तिमार्ग- उत्तर' (Salvation Road-South and Salvation Rond-North)ऐसे नाम दे सकते है। ऐसा न माने कि जो अात्मा के शत्रु है वे शरीर के शत्रु नहीं है । जब तक आत्मा से जुडा हुया गरीर अपने कार्य (Function) मे प्रवृत्तिमान है तब तक-मापेक्ष दृष्टिसे-यात्मा और शरीर भिन्न नहीं है । अत शरीर के द्वारा जो भी प्रवृत्ति होती है वह आत्मा की अपनी प्रवृत्ति है । विचार में जो वस्तु बुरी हे वह आचार मे कभी भली नहीं हो सकती। उसी तरह जो कुछ भी आध्यात्मिक दृष्टि से अच्छा हो, वह भौतिक दृष्टि से कभी अनिच्छनीय हो ही नहीं सकता। इसी प्रकार जो सिद्धान्त भौतिक क्षेत्र मे व्यवहृत होने के लिये निश्चित किये जाणं, वे यदि आध्यात्मिक विकास के पूरक तथा सहायक न हो तो उनसे कुछ भी भौतिक हित हो ही नहीं सकता। ऐसा यदि कुछ निश्चित किया जाय तो वह सन्मार्ग नहीं, उन्मार्ग है । व्यवहार और निश्चय, दोनो एक ही मार्ग के 'पूर्वा' और 'उत्तरार्ध' के समान दो भाग है । इन दोनो का लक्ष्य एक ही है। इस बात को लक्ष्य मे रखकर जैन तत्त्ववेत्तानो ने जीवन जीने के लिये सामान्य गृहस्थ धर्म से सुशोभित विशेप गृहस्थ धर्म-स्वरूप एक विकास-मार्ग बताया है । एक ही आत्मोत्थान के राजमार्ग की पगडडी जैसा यह मार्ग हमारे सामने जीवन जीने की एक विकासश्रेणी (Ladder of evolution) पेश करता है। वह भौतिक क्षेत्र मे आध्यात्मिक रग भरता है, और धीरे धोरे प्रात्मा के पूर्ण विकास की दिशा मे ले जाता है । उन्होने इस विकासक्रम के जो सोपान
SR No.010147
Book TitleAnekant va Syadvada
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandulal C Shah
PublisherJain Marg Aradhak Samiti Belgaon
Publication Year1963
Total Pages437
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Philosophy
File Size13 MB
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