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________________ ३७६ उन्हे यह बात बताता है । श्रतएव उन्होने जीवन के विकासमार्ग के दो भेद किये है - 'साधुधर्म' और गृहस्थधर्म | वैराग्य उत्पन्न होने पर, आत्मज्ञान जाग्रत होने पर साधुत्व अगीकार करने वाले महानुभावो को पालने के प्राचारो का एक विशाल सूचीपत्र उन्होने बनाया है । इसी तरह समारी मनुष्यो की सीमाओ को ध्यान मे रख कर गृहस्थधर्म के अनुसरण करने का भी सुलभ निरूपण उन्होंने किया है । यह सव इतना सुन्दर तथा सुव्यवस्थित ( So well planned ) है कि उसे देखकर वडा श्रानन्दमिश्रित प्राञ्चर्य होता है । ऊपर जो पाँच मुख्य आचार बताये गये है, वे गृहस्थधर्म का पालन करने के केवल धार्मिक नही अपितु सर्व क्षेत्रोय एव सर्व देशीय मूलभूत सिद्धान्त है | It is a great code of conduct, absolutely essential for every human being-यह प्रत्येक मनुष्य के लिए सर्व काल एव सर्व स्थलो पर अत्यन्त आवश्यक महान जीवन सहिता है । व्यक्ति और समष्टि का कल्याण भिन्न भिन्न नही है । प्रत समस्त मानव जाति के लिए यह परम कल्याणकारी विज्ञान है । इन पाँचो श्राचारो को पालने से जो लाभ होते हैं उनका भी जैन शास्त्रकारो ने वडा सुन्दर विवेचन किया है । मन, वचन तथा काया के त्रिवेणी संगम से जो इन आचारो का पूर्णतया पालन करता है उसका तो उद्धार हो ही जाता है, जो लोग इनका प्रशत. पालन करते हैं, और सपूर्णत पालन करने के मार्ग पर आगे बढने मे सतत प्रयत्नशील रहते हैं उन्हे भी इससे असीम लाभ होता है । जैन तत्त्वज्ञान इस संसार को सर्वथा माया या भ्रम नही
SR No.010147
Book TitleAnekant va Syadvada
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandulal C Shah
PublisherJain Marg Aradhak Samiti Belgaon
Publication Year1963
Total Pages437
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Philosophy
File Size13 MB
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