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________________ १७ करीव पाँच साल के अध्ययन और परिश्रम के बाद, आज जब मैने यह लिखना शुरु किया तब भी मुझे अपनी अल्पज्ञता का भान, जैसा पहले था वैसा ही तीव्र है । पूज्य महाराजश्री की - प्रपने गुरुदेव की - प्रेरणा मुझे न मिली होती तो ग्राज यह लिखना प्रारंभ करने की मेरी हिम्मत होती या नही यह भी एक प्रश्न है । जो पुस्तके मैने पढी, उनमे कोई संस्कृत या प्राकृत भाषा मे लिखी हुई पुस्तके नही थी । जैन तत्त्वज्ञान का विपुल भडार इन दो भाषाओ मे संग्रहीत पडा है । उनकी सहायता से अग्रेजी, हिन्दी और गुजराती भाषाओ मे लिखी हुई बहुत सी पुस्तके मैं देख गया । संस्कृत और प्राकृत भाषायो पर अधिकार प्राप्त करने के लिये कोशिश करने की और इतना धीरज रखने की सुविधा तो थी ही नही । फिर भी मै पूज्य गुरुदेव का मार्गदर्शन प्राप्त करता रहा । जो कुछ भी समझ मे न आता था उसे समझने के लिये मै प्रत्यक्ष या पत्र द्वारा उनका मार्गदर्शन प्राप्त करता रहा । उन्होने अत्यन्त प्रेम, करुणा और उत्साह के साथ मुझे अपनाया और मेरा मार्गदर्शन करते रहे । अर्वाचीन भाषाओ मे जो कुछ भी लिखा गया है उसे देखकर पूज्य गुरुदेव को कम असतोष नही था । जब मै इन्दौर मे था तब उन्होने मेरे नाम एक पुस्तक भेजी थी ताकि मे उसका अध्ययन कर सकूं । इस सिलसिले में उन्होने मेरे नाम 1
SR No.010147
Book TitleAnekant va Syadvada
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandulal C Shah
PublisherJain Marg Aradhak Samiti Belgaon
Publication Year1963
Total Pages437
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Philosophy
File Size13 MB
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