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________________ ३२६ नियम और विधान के अनुसार समय होने पर ही उदय में श्राता है । दूसरी एक समझने योग्य तथा हमे ग्राणा एव उत्साह प्रदान करने वाली बात यह है कि कर्म के उदय में आने का समय निश्चित होता है, किन्तु उसको भोगने का समय --- केवल निकाचित कर्म को छोड़ कर --- निश्चित नही होता । कर्म-वधन के समय उसकी जो यनिमर्यादा निश्चित हुई हो, उसमें आत्मा अपने शुभाशुभ परिणामों वाले मनोव्यापारो -- अध्यवमायो — के द्वारा परिवर्तन भी कर सकता है । इसे श्राप लोहे की थाली मे सोने की कील कहिये या मरुभूमि मे मीठे पानी का झरना कहिये, या घोर अधकार मे रह कर चमक कर प्रकाश दे जाने वाली बिजली कहिये, ऐसा ही कुछ है । हम सव को मालूम है कि क्षण भर चमक कर पुन वादलो मे छिप जाने वाली ग्राकाश की बिजली जितना प्रकाश देती है उतना सूर्य, चन्द्र र श्रमस्य तारे मिल कर नही दे सकते । यह तथ्य - कर्म के सविधान - Constitution -- का यह अध्याय - प्रत्येक मोक्षार्थी ग्रात्मा को ग्रविरत उत्माह देने कोई वाला है। कर्म के बंधने के प्रकारो मे मे कोई शिथिल, मध्यम कोटि का कोई गाढ, तो कोई अतिगाढ होता है । इनमे जो सव से अधिक प्रत्यन्त गाढ - कर्म होता है, उसे जैन दार्शनिको ने 'निकाचित कर्म' नाम दिया है । यह कर्म प्राय भोगना ही पड़ता है । उसके सिवा अन्य कर्मो का क्षय ग्रात्मा अपनी भावना और साधना के पर्याप्त वन्न से- भोगे विना भी कर सकता है । हमने देखा कि चास्रव' के नाम से विदित मन, - वचन
SR No.010147
Book TitleAnekant va Syadvada
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandulal C Shah
PublisherJain Marg Aradhak Samiti Belgaon
Publication Year1963
Total Pages437
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Philosophy
File Size13 MB
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