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________________ ३१२ सम्बन्ध रखता है, उस शरीर के लिए भी श्रात्मा 'में' शव्द का जो प्रयोग करता है सो एक प्रकार के सम्बन्ध के कारण संस्कार के कारण — करता है । वास्तव मे तो श्रात्मा और शरीर भिन्न ही हैं । दोनो के द्रव्य ग्रलग अलग है, परन्तु कर्म के सयोग से दोनो एक बन जाते है, एक बनने का सस्कार मिलने से दो मे से एक वन जाते है । व इस चर्चा को हम प्रागे वढाएँगे । “ये मेरे पिताजी है, ये मेरी माताजी है, यह मेरी पत्नी है, ये मेरे पुत्र-पुत्री है, ये मेरे मित्र है ।" ऐसे ऐसे वाक्य बोलते समय हमारे चित्त मे मेरेपन का एक सस्कार अथवा ध्वनि तो होती ही है । शुद्ध तात्त्विक दृष्टि से शरीर तथा ग्रात्मा भिन्न भिन्न होते हुए भी सस्कारवश एक वन जाने के कारण जब हम 'मैं' का प्रयोग करते है तब उसके द्वारा आत्मा और शरीरदोनो का उल्लेख होता ही है । ऐसी ही दृष्टि से जब हम परिवार के लोगो तथा मित्रो के लिए 'मेरे' शब्द का प्रयोग करते हैं तब चित्त मे उठते हुए संस्कार के द्वारा हम उन सब के साथ एकत्व ग्रनुभव करते है । इम दृष्टि से विचार करते हुए मन मे यह भाव लाकर कि 'जो मेरा है वह में ही हैं' हम यह भी कह सकते है कि मध्यम पुरुष तथा अन्य पुरुप की भिन्नता रखने वाले वे सब 'मेरे' होने के कारण 'वे भी मैं ही हूँ' यहाँ यह न भूलना चाहिए कि यह भी एक सापेक्ष वात है । चित्त के इस संस्कार के कारण जिस किसी के लिए हम 'मेरा' शब्द का प्रयोग करते है उन सब के साथ हमारा
SR No.010147
Book TitleAnekant va Syadvada
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandulal C Shah
PublisherJain Marg Aradhak Samiti Belgaon
Publication Year1963
Total Pages437
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Philosophy
File Size13 MB
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