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________________ २६६ दीर्घ परम्पराएँ भी मनुष्य-भव मे ही निर्मित होती है । प्रात्मा जव मनुष्य-देह मे हो तभी प्रात्मा और कर्म के बीच बडा भारो कहा जा सके ऐसा मुकावला होता है। यहाँ शायद कोई पूछे कि “ऐसा क्यो ? मुक्ति की प्राप्ति मनुष्य-भव मे ही सभव है और अन्य किसी भव मे क्यो नही ?" इसका उत्तर तो सीधा और सरल है। विवेक, विचार, त्याग तथा वाचा की शक्ति प्रादि जो समस्त सामग्री मानवदेह मे प्रात्मा के पास होती है, वह अन्य कौन से शरीर मे है ? मनुष्य-शरीर मे जितनी सृजन-शक्ति erentive energy है उतनी दूसरे कौन से शरीर मे है । जहाँ तक आत्मा और शरीर का सवध है, आत्मा के लिए मोक्ष प्राप्त करने का सर्वोच्च वाहन (Supi eme medium) मानव-शरीर है। हवाई जहाज हमे बहुत ऊपर आकाश मे ले जाता है, परन्तु यदि वहाँ वह टूट जाए तो ऐमी दशा हो कि हमारी हड्डियो के टुकडे भी शायद ही हाथ लगे। उसी तरह इस मनुप्य भव का सदुपयोग करके अात्मा अपने सर्वोच्च गुणो को प्रकट कर सकता है, उसका दुरुपयोग करके अपने लिए बुरी से बुरी (Extic me worst) स्थिति भी पैदा कर सकता है। आत्मा के लिए मानव भव के सिवा और किसी भव मे दोनो ओर के सिरो की स्थिति (Poles apait) उपलब्ध नहीं है। जो कर्म आत्मा की इस सारी दौड धूप मे महत्त्व का भाग लेते है उन्हे साधारण बुद्धि से पुण्य और पाप ये दो नाम दिये गये है। एक बार एक प्रात्मार्थी मनुष्य एक सत पुरुप के पास गया । उसने सन्त पुरुष से पाप और पुण्य की ऐसी व्याख्या
SR No.010147
Book TitleAnekant va Syadvada
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandulal C Shah
PublisherJain Marg Aradhak Samiti Belgaon
Publication Year1963
Total Pages437
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Philosophy
File Size13 MB
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