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________________ २६६ का क्षय अनिवार्य गिना जाता है । इन पाठो कर्मो के नाग (क्षय) के बाद ही यात्मा सिद्धत्व प्राप्त करता है । जैन तीर्थकर जब केवलज्ञान प्राप्त करते हैं तब प्रथम चार घाती कर्मो का क्षय-नाग करने के बाद ही उस स्थिति पर पहुँचते है । जव प्रात्मा के मूल ज्ञान रवल्प को अवरुद्ध करने वाले इन चार कर्मों का पूर्णत क्षय होता है, तभी आत्मा ‘परमात्मा' बनता है, और तभी 'सर्वजता-केवलज्ञान' प्रकट होता है । केवलज्ञान प्राप्त करने के बाद तीर्यकर त्रिलोक के जीवो को वोध देने के लिए और सम्यक् जान, सम्यक् दर्शन और सम्यक् चारित्र-रूप मोक्ष-मार्ग का उपदेश देने के लिए जो अायुप्य भोगते है उसमे उनके चार अघाती कर्म उन्हे लगे हुए होते है। ये प्रघाती कर्म प्रात्मा के मूल स्वरूप (Basic quality) मे वाधक नही होते । तीर्थकरो का आत्मा जिस गरीर मे होता है, उस गरीर को छोड़ने का समय वे भगवान जानते होते है । जब वह समय आता है, तब तक मे वाकी बचे हुए चार अघाती कर्म भोग कर तथा छेदन करके वे सिद्धत्व प्राप्त करते है। ____ जव तीर्थकरो को केवलज्ञान प्राप्त होता है तब वे रूपो अरूपी, सूक्ष्म और स्थूल-समस्त पदार्थों को और प्रत्येक पदार्थ के अनेक परस्पर विरोधी गुण धर्मों को प्रात्मा से प्रत्यक्ष देखते है और समझते है । इस विषय का ज्ञान अपने उपदेश (देशना) के द्वारा वे दुनिया को देते है। उनका यह ज्ञान 'सकल प्रत्यक्ष' ज्ञान होता है । वे जिस स्तर पर पहुँचे है उस स्तर पर पहुँचे विना अन्य किसी को यह प्रत्यक्ष ज्ञान नहीं हो
SR No.010147
Book TitleAnekant va Syadvada
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandulal C Shah
PublisherJain Marg Aradhak Samiti Belgaon
Publication Year1963
Total Pages437
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Philosophy
File Size13 MB
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