SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 296
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ कर्म 'कर्म' क्रियावाचक, क्रियासूचक, क्रियादर्शक शब्द है । कर्म का अर्थ ही हैं क्रिया । जिस तरह गति में क्रिया है, उसी तरह स्थिति में भी क्रिया है । क्रिया के दो प्रकार कहे गये है । (१) द्रव्यक्तिया (२) भावक्रिया | इनमे से जो क्रिया इन्द्रियों और शरीर से होती है उसे द्रव्यक्तिया कहते है। हम उसे वाह्य क्रिया भी कह सकते हैं । जो क्रिया मन के द्वारा होती है, जो कुछ संकल्पविकल्प, भले बुरे विचार, प्रेम (राग) तथा तिरस्कार (द्वेष ) इत्यादि जो क्रिया होती है सो भाव क्रिया है । इसे हम आन्तरिक क्रिया कह सकते है | यदि हम किसी राह चलते सामान्य व्यक्ति को खड़ा रख कर कर्म के विषय में पूछे तो वह ऐसा उत्तर देगा, "हमारे द्वारा जो कुछ भी कार्य होता है सो कर्म ।" कुछ समझदार व्यक्ति उत्तर देगा कि, "जैसा करोगे वैसा पाओगे । करते हो सो कर्म और पाते हो सो फल है ।" इस तरह कर्म-विषयक व्यावहारिक समझ तो सर्व साधारण तथा क्वि व्यापक है । परन्तु कर्म-विषयक शास्त्रीय ( वैज्ञानिक) ज्ञान का दुनिया मे पर्याप्त प्रचार नही है, पर्याप्त जानकारी नहीं है । तत्त्वज्ञान के विचारानुसार 'कर्म किसी क्रिया अथवा प्रवृत्ति का सस्कार ही नही है । कर्म एक वस्तु है, वह द्रव्य-भूत वस्तु है | उसके अपने पुद्गल होते है । इन पुद्गलो को कर्म वर्गरगा के पुद्गल कहते है । हम मन, वचन और काया के द्वारा जो भी कार्य करते हैं उन्हें 'जीव की प्रवृत्ति' माना जाता है । श्रात्मा की इस
SR No.010147
Book TitleAnekant va Syadvada
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandulal C Shah
PublisherJain Marg Aradhak Samiti Belgaon
Publication Year1963
Total Pages437
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Philosophy
File Size13 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy