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________________ २५६ पद्धति तथा अनेकान्तवाद विपयक पूर्ण जानकारी ने काफी महत्त्व का भाग लिया है। पूरे दृष्टान्त से यह वान सिद्ध होती है । जैन शास्त्रकारो ने ग्रनेकान्तवाद तथा स्यादुवाद को एक साधारण ज्ञान-तत्त्वविज्ञान माना है । यह एक अत्यन्त गंभीर विपय है । उन्होने इस विषय का ज्ञान जिस तिस के सामने खोलने का निषेध किया है। उन्होने यह शर्त रखी है कि 'जिनकी बुद्धि की ग्रहणशक्ति अतिशय उच्च कोटि की हो, जो पूर्वग्रह से पूर्णतया मुक्त हो, सम्पूर्ण तटस्थता धारण करने वाले हो' मुमुक्षु भाव से ज्ञान-प्राप्ति के लिए ही इस तत्त्वविज्ञान को समझना चाहते हो तथा जीवन एव जीवन के ध्येय के प्रति पूर्णतया जाग्रत तथा गभीर हो, ऐसे विशिष्ट कोटि के विवेकी जिज्ञासूत्रो को ही इस विषय का ज्ञान दिया जाय । जैन तत्त्ववेत्ता श्रनेकान्तवाद के अध्ययन तथा पठनपाठन के सम्बन्ध मे शताब्दियों से इस शर्त का पालन करते आये है । सबको यह ज्ञान देने के सम्बन्ध में, इस निषेध के कारण ही, उन्हे सकोच अनुभव होता रहा है । इसका एक परिणाम यह हुआ कि इस अद्भुत तत्त्वविज्ञान को अन्य ऐकान्तिक मतमतान्तरो जितनी ख्याति प्राप्त नही हुई । आज हम बुद्धिवाद के युग मे जी रहे है, ऐसा दावा किया जाता है । जीवन के भिन्न भिन्न क्षेत्रो मे पहले जो सन्तोप विद्यमान था, अब उसका स्थान असन्तोष ने ले लिया है । जो कुछ जात है उतने से सन्तोष मानकर बैठ रहने को आज की दुनिया तैयार नही है । अव नया नया जानने और समझने की भूख खुलने लगी है । स्यादवाद सिद्धान्त को जिज्ञासुमो के खुले बाजार मे रखने
SR No.010147
Book TitleAnekant va Syadvada
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandulal C Shah
PublisherJain Marg Aradhak Samiti Belgaon
Publication Year1963
Total Pages437
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Philosophy
File Size13 MB
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