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________________ २२७ यहाँ हम एक नया स्वतन्त्र विधान इन पांचवी कसोटी के नाधार पर कर रहे हैं-है और प्रवक्तव्य है।' ममे में 'बनग' को तो हम ठीक तरह से समझ चुके हैं। जिम दन्तु में दो परस्पर विरोगी गुण-धर्म हो उने उन दोनो स्पो में एक ही बार में और एा ही रीनि ने समझाया नहीं ना सकता । अब यह पाँचा भंग वस्तु के अस्तित्व को स्वीकार कर के फिर 'वत्तव्य' कहता है। बह पांचवां भग उस्तु को स्वचतुष्ट-अपेक्षिन रितत्व को स्वीकार करता है, साथ ही उनमें यह बात भी जोड देना है किन्नन्न परचतुष्टर तथा स्वतन्त्र स्व-पर-चतुप्रयव्य वो अपेक्षा ग्लो लक्ष्य में लेकर उसका वर्णन नहीं हो सकता। _वन्नु के सभी धर्मों को स्पष्ट करने के लिए प्रथम चार भगो के द्वारा प्रस्तुत मन्तव्य पर्याप्त नहीं होने के कारण ही इस पांचवे और इसके बाद के छठे तथा मानवे भगो की यावश्यकता उपस्थित हुई है। पहले के चार भग भली भाति समझ में आजाने के बाद इस पांचवे भंग को नमनने में कोई कठिनाई नही होगी । 'वस्तु है और प्रवक्तव्य है' यह एक निश्चित बात उन कसोटी से सिद्ध होती है । इसे समझने के लिए एक उदाहरण लेते हैं 'कुआं खोदने के लिए ऐसी जगह पनन्द की जाती है जिमके नीचे अधिक से अधिक निकट से पानी निकल सके। जमीन के नीचे पानी है यह एक निश्चित तथ्य (Matter of fact) है । फिर भी कुरा खोदने के लिए पसन्द की हुई जगह के विषय मे कोई निश्चयपूर्वक यह नहीं कह सकता कि वहाँ अवश्य निकट से पानी निकलेगा। इस अवसर पर यदि कोई
SR No.010147
Book TitleAnekant va Syadvada
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandulal C Shah
PublisherJain Marg Aradhak Samiti Belgaon
Publication Year1963
Total Pages437
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Philosophy
File Size13 MB
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