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________________ २०८ वस्तु के प्रत्येक परिणमन मे उसका द्रव्य अग कायम रहता है, पूर्व-पर्याय का नाश होता है और उत्तर-पर्याय की उत्पत्ति होती है। वस्तु का जो द्रव्य अश है वह ध्रुव (स्थायी) रहता है, और पर्याय अश उत्पन्न नष्ट होता है (बनता-मिटता रहता है ) अर्थात् मूल द्रव्य का ध्रौव्य है, और पूर्व पर्याय का नाश तथा उत्तर पर्याय की उत्पत्ति होती है । इस प्रकार वस्तु मात्र मे ये तीनो धर्म-उत्पाद, व्यय और ध्रौव्य-अनादि अनत काल तक चलते रहते है । वस्तु का जो ध्रुव (स्थायी)अश है वह 'नित्य' है और जो उत्पन्न तथा विनष्ट अश है वह अनित्य है । इस तरह वस्तुमात्र कथचित् नित्यानित्य-स्वरूप है-इस वात पर जैन दर्शनकार विशेप बल देते है । कोई वस्तु एकान्त नित्य हो ही नहीं सकती। यहाँ शायद कोई यह प्रश्न पूछे कि "उत्पाद-व्यय तो पर्याय मे होते हैं और प्रौव्य द्रव्य मे रहता है, तब भला उत्पाद व्यय ध्रौव्य एक ही वस्तु के तीन धर्म कैसे कहला सकते है ? इसका उत्तर विल्कुल स्पष्ट है । पर्याय वस्तु से भिन्न नहीं है, द्रव्य भी वस्तु से अलग नहीं है । वस्तु स्वय द्रव्यरूप भी है और पर्याय रूप भी, अतएव ये तीनो धर्म एक ही वस्तु के है। वस्तु मात्र के जो अनेक भिन्न-भिन्न अत-सिरे-हैं, उनमे कोई भी अत स्वतन्त्र नहीं है । ये सभी अन्त किसी न किसी अपेक्षा से एक दूसरे से सम्वन्ध रखते हैं । जव जैन दार्गनिक यह तथ्य नयदृष्टि से तथा सप्तभगी के कोष्ठक के द्वारा समझाते है तव उसके विरुद्ध सवसे वडा होहल्ला यह मचाया जाता है कि 'यह बात अधूरी होने के अतिरिक्त इसमे अनिश्चितता है । ये दोनो आक्षेप, ये सव ववण्डर-झूठे हैं ।
SR No.010147
Book TitleAnekant va Syadvada
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandulal C Shah
PublisherJain Marg Aradhak Samiti Belgaon
Publication Year1963
Total Pages437
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Philosophy
File Size13 MB
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