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________________ १४२ परिपाक काल नामक तीसरा कारण है। जीव का अर्ध्वगामी स्वगुण-स्वभाव चोया कारण है, आत्मा का चिपके हुए कर्म रूपी मल को धोकर सपूर्णतया कर्ममुक्त होने के लिये उसका पुरुपार्थ पाँचवाँ कारण है। ___ इस प्रकार भवितव्यता के द्वारा जीव निगोद मे से बाहर निकला, स्वभाव से वह ऊर्ध्वगामी बना, कर्म से उसे सामग्री तथा सुविधाएँ मिली, उद्यम से वह मुक्ति के मार्ग पर आगे बढा, और काल का परिपाक होने से वह आत्मा मुक्त हुग्रा । इससे स्पष्टतया समझ मे पाएगा कि आत्मा की मुक्ति के एक कार्य के बनने मे उपर्युक्त पांचो कारण एकत्रित हुए तभी कार्य बना। ऊपर 'निगोद' तथा 'चरमावर्त' दो शब्दो का प्रयोग हुआ है । उनका कुछ परिचय प्राप्त कर ले । जैन तत्त्वज्ञानियो की मान्यतानुसार अनन्त कालचक्र व्यतीत होने पर एक 'पुद्गल परावर्त काल' आता है । जीव के ससारवास का यह अतिम 'समयवर्ती भ्रमण' है। इसे 'चरमावर्त' नाम दिया गया है । निगोद मे से निकले हुए जीव को चरमावर्त मे आते सामान्यतया अनन्तकाल लगता है। इस विषय मे अधिक जानने की रुचि हो तो उसका ज्ञान तज्न (विशेपज्ञ) महानुभावो से प्राप्त करना चाहिए। दूसरा शब्द 'निगोद' है । यह बहुत उपयोगी तथा समझने योग्य शब्द है । इसे समझने-समझाने के लिये 'जीवविषयक विचारो का--जीव तत्त्व विचार का-सारा शास्त्र यहा खोल कर धरना पडे । इसके लिये ग्रन्थ को अत्यन्त विस्तृत बनाना पडे, साथ ही ऐसे करने मे विपयान्तर हो
SR No.010147
Book TitleAnekant va Syadvada
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandulal C Shah
PublisherJain Marg Aradhak Samiti Belgaon
Publication Year1963
Total Pages437
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Philosophy
File Size13 MB
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