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________________ ६१ पिस्तौल जब हमारे हाथ मे होती है तब हमारी रक्षा करती हे | किन्तु जव दुश्मन के हाथ मे या जाती है तव वही पिस्तौल हमारी मौत का कारण बन जाती है। यहा पर पिस्तौल का क्षेत्र भेद हुया जब कि उस जहर मे ( प्रमाण ) भाव भेद हुआ था । मनुष्य की भी बाल्यावस्था, किशोरावस्था, यौवन, श्रघेडअवस्था, वृद्धावस्था और अन्तिम अवस्था हम देख सकते है | देह और नाम एक होते हुए भी कालभेद के कारण, काल की अपेक्षा से - कितने स्वरूप हुए ? गोर वे भी परस्पर विरोधी । मात्र देखने भर मे ही विरोधी नही, स्वभाव भी उन सभी अवस्था मे वदलता ही रहता है । यह वदलता हुआ स्वभाव भी परस्पर विरोधी होता है । द्रव्य भेद से, द्रव्य की अपेक्षा से, वही की वही देह मुकोमल, वज्र जैसी मजबूत, पीडित, स्वन्थ, सशक्त, ग्रशक्त, दाढी-मूंछ बिना को, दाढी-मूंछ वाली, सीधी, कमर से झुकी हुई मखमल जैपी मुलायम और झुर्रियो वाली जर्जरित ग्रादि परस्पर विरोधी गुण धर्म वाली बनती है । वही देह क्षेत्र की अपेक्षा से ग्रग्रेज, अमरीकन, हिन्दुस्तानी, योरनियन, फोन, बगाली और गुजराती यादि भिन्न-भिन्न नाम से पहचानी जाती है । भाव की अपेक्षा से, वहो मनुष्य सोम्य, रौद्र, शांत, श्रगात, स्थिर, अस्थिर, धीर, अधीर, छिछोरे स्वभाव वाला, गंभीर, रूपवान और कुरूप भी दिखलाई पडता है ।
SR No.010147
Book TitleAnekant va Syadvada
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandulal C Shah
PublisherJain Marg Aradhak Samiti Belgaon
Publication Year1963
Total Pages437
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Philosophy
File Size13 MB
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