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________________ 66 विदेशों में जैन धर्म लेबनान, सीरिया, इथोपिया आदि में विधिवत् विद्यमान थे तथा वहां सर्वत्र दिगम्बर श्रमण साधु विहार करते थे। इतिहास से पता चलता है कि 998 ईसवीं के लगभग भारत से बीस जैन साधु पश्चिम एशिया के देशों में ससंघ धर्म प्रचारार्थ गए और उन्होंने वहा जैन संस्कृति का अच्छा प्रचार किया। जैन श्रमण संघ 1024 ई. में पुनः शान्ति, अहिंसा और समतावाद का अमर संदेश लेकर विदेश गया और लौटते हुए अरब के तत्वज्ञानी कवि यबुल अला अल्मआरी से उसकी भेट हुई। कवि ने बाद में बगदाद स्थित जैन दार्शनिकों से जैन शिक्षा ग्रहण की। मध्यकाल में भी जैन दार्शनिकों के अनेक संघ बगदाद और मध्य एशिया गए थे और वहा अहिंसा धर्म का प्रचार किया था जिसका प्रभाव इस्लाम धर्म के "कलन्दर तबके" पर विशेष रूप से दीर्घकाल तक बना रहा था। नवीं दसवीं शती में अब्बासी खलीफाओं के दरबार मे भारतीय पण्डितो के साथ-साथ जैन साधुओं को सादर निमन्त्रण दिया जाता था और ज्ञान चर्चा की जाती थी । अध्याय 27 सुमेरिया, असीरिया, बेबीलोनिया आदि देश और जैन धर्म तेरहवें तीर्थकर विमल नाथ अथवा विमल वाहन को वैदिक हिन्दू परम्परानुसार वराहावतार घोषित किया गया था, क्योंकि उन्होने लुप्तप्राय धर्म तीर्थ की पुनः स्थापना करके पृथ्वी का उद्धार किया था। इसी कारण उनकी प्रख्याति भारत के बाहर उन देशों में भी हुई, जहां भारतीय मूल के प्रवासी बसे हुए थे। प्राचीन काल से ही भारतीय मिश्र, मध्य एशिया, यूनान आदि देशों से व्यापार करते थे तथा अपने व्यापार के प्रसग में वे उन देशों मे जाकर बस गये थे। सु-राष्ट्र अथवा सौराष्ट्र के "सु" जातीय लोगों के विषय में जर्मन विद्वान जे. एफ. हैवीन्ट ने यह प्रमाणित किया है कि वे लोग सौराष्ट्र से जाकर तिगरिस और यूफ्रेट्स नदियों के मध्यवर्ती प्रदेश में जाकर बसे थे। उनके सु-नाम के कारण ही उस प्रदेश का नाम सुमेरिया (Summeria) पड़ा था। वे सभी जैन धर्म के अनुयायी थे तथा मेरु के
SR No.010144
Book TitleVidesho me Jain Dharm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGokulprasad Jain
PublisherBharat Varshiya Digambar Jain Mahasabha
Publication Year1997
Total Pages113
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size4 MB
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