SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 59
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ 59 विदेशों में जैन धर्म को मगध के नंदवंशी सम्राट नंदवर्धन कलिंग से पटना ले गए और ईसा पूर्व दूसरी शताब्दी में कलिंग सम्राट खाखेल उस मूर्ति को पटना से वापिस कलिंग ले आये। यह मूर्ति संभवतः भगवान महावीर, बल्कि भगवान पार्श्वनाथ से भी पहले बनी होनी चाहिए। यह तीर्थंकर ऋषभ के अस्तित्व का स्पष्ट प्रमाण है जो कि आयों के वेदों, शास्त्रों और अन्य प्रलेखों से भी प्रमाणित है। मोहन जोदड़ो आदि सिन्धुघाटी सभ्यता केन्द्रों से जो पुरातत्व उपलब्ध हुआ है वह तो वेदों से भी प्राचीन है। उसमें ऐसी योगियों की मूर्तियां मिली हैं जिनके नेत्र अर्धोन्मीलित हैं और दृष्टि नासाग्र पर स्थिर दृष्टिगोचर होती है। इससे स्पष्ट है कि तब योग का प्रचार था और लोग योगियों की मूर्तियां बनाकर पूजते थे। ये मूर्तियां हमें प्रथम तीर्थकर की इस मूर्ति से हजारों वर्ष पहले ले जाती है जिसे पांचवी शताब्दी ईसा पूर्व में नन्दवर्धन कलिंग ले गया था। ये मूर्तियां जैन ही हो सकती हैं क्योंकि वे वैदिक मान्यता से बाहर पडती हैं। इस सब साक्ष्य से मेजर जनरल जे.जी.आर. फरलॉग के निम्नलिखित मत की पुष्टि होती है जिसे उन्होने वर्षों पहले व्यक्त किया था। उन्होंने लिखा था कि ईसा पूर्व 1500 से 800 वर्षों तक अथवा अज्ञात काल से समग्र पश्चिमी और उत्तर भारत पर तातारी द्रविड लोगों का शासनाधिकार था। वे लोग. वृक्ष, सर्प और लिग की पूजा करते थे। किन्तु उसी प्राचीनकाल में समग्र उत्तरी भारत में एक अति प्राचीन और सुसंगठित धर्म, तत्वज्ञान, चारित्र और सन्यास प्रधान मत अर्थात् जैन धर्म प्रचलित था। उसमें से ही तदुपरान्त ब्राह्मण और बौद्ध लोगों ने सन्यास की बातें ग्रहण की। आर्य लोग गगा अथवा सरस्वती तक पहुंचे भी न थे कि उसके बहुत पहले ही जैनों को 22 तीर्थंकरों ने शिक्षित और दीक्षित किया था जो कि ईसा पूर्व 9वीं-8वीं शताब्दी के 23वें तीर्थंकर पार्श्वनाथ से बहुत पहले हो चुके थे। पार्श्वनाथ अपने इन पूर्वजों को जानते थे और उनके ग्रन्थ भी अर्थात् "पूर्व' तब से शिष्य परम्पस से बराबर चले आ रहे थे। वानप्रस्थ मुख्यतः जैन संस्था ही थी जिसका जोरदार प्रचार सभी तीर्थंकरों, खांस तौर से महावीर ने किया था।56 खारवेल का पिता बुद्धिरण तथा पितामह क्षेत्रराज उड़ीसा के चेदिवंश
SR No.010144
Book TitleVidesho me Jain Dharm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGokulprasad Jain
PublisherBharat Varshiya Digambar Jain Mahasabha
Publication Year1997
Total Pages113
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size4 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy