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________________ विदेशों में जैन धर्म 57 सम्प्रति ने कश्मीर में श्रीनगर बसाया और वहां 500 चैत्यों, स्तूपों, स्मारकों आदि का निर्माण कराया। सम्प्रति ने सुवर्णभूमि, चीन, हिन्दचीन, कम्बोडिया, हिमवन्त वनवास. अपरान्तक, यूनान आदि तथा मेसीडोनियां, सीरिन, एपीरस, लंका आदि देशों में धर्म विजय प्राप्त की और सर्वत्र जैन श्रमणों के लिए विहार बनवाये । विदेशें के साथ सम्प्रति के अच्छे राजनयिक सम्बन्धं थे। सीरिया, ग्रीस, मेसीडोनिया आदि के साथ उसके मित्रता के सम्बन्ध थे | 79 891 प्रागैतिहासिक काल में भरतवर्ष का क्षेत्रफल अविभक्त हिन्दुस्तान से लगभग दुगुना था । पृथक-पृथक राज्यों के होने पर भी क्षेत्रीय अखण्डता अबाधित थी । इतिहास काल में भारत की पूर्वोत्तर तथा पश्चिमोत्तर सीमाओं के पार श्रमण सभ्यता, संस्कृति और सत्ता के प्रचुर साक्ष्य मिलते हैं। सम्राट सम्प्रति ने विजयार्ध (वैताढ्य) पर्वत तक त्रिखण्ड-भरतवर्ष को जिनायतनों से मंडित कर दिया जैसा कि आचार्य हेमचन्द्र ने अपने परिशिष्ट पर्व में लिखा है: J "आवैताढ्यं प्रतापाद्यं स चकाराकिकारथीः । त्रिखण्डं भरतक्षेत्रं जिनायतनमण्डितम् ।। -- - हेमचन्द्राचार्य कृत परिशिष्ट पर्व - 11/65 मौर्य सम्राट चन्द्रगुप्त मौर्य के दीक्षा गुरु श्रुतकेवली भद्रबाहु ने अपने शिष्य चन्द्रगुप्त और विशाल जैन साधु संघ के साथ 298 ईसा पूर्व में सम्राट चन्द्रगुप्त के शासन काल में दक्षिण भारत की यात्रा की थी जिससे जैन धर्म की भी व्यापक प्रभावना हुई थी । 31. सम्राट सम्प्रति ने विदेशों में सर्वत्र जैन संस्कृति का सन्देश पहुंचाया। अफगानिस्तान से संलग्न अरब क्षेत्र को जैन आगमों में पारस्य के नाम से अभिहित किया गया है। सम्राट सम्प्रति ने जैन श्रमणों के विहार की व्यवस्था अरब व ईरान में भी की थी। वहां उसने अहिंसा धर्म का व्यापक प्रचार-प्रसार किया तथा ईरान और अरब निवासियों ने बड़ी संख्या में जैन धर्म स्वीकार किया था। बाद में अरब पर ईरान के आक्रमण करने पर जैन धर्म में दीक्षित लोग दक्षिण भारत में चले आये और इनकी संज्ञा "सोलक
SR No.010144
Book TitleVidesho me Jain Dharm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGokulprasad Jain
PublisherBharat Varshiya Digambar Jain Mahasabha
Publication Year1997
Total Pages113
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size4 MB
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