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________________ विदेशों में जैन धर्म 45. का राजा और सारी प्रजा जैन धर्मानुयायी थी। समय-समय पर वहां अनेक देशों से जैन लोग तीर्थ-यात्राओं और अन्तर्राष्ट्रीय व्यापार के लिए जाते थे। भारत से वहां जाने वाले अनेक यात्रियों के उनके अपने यात्रा विवरणों सम्बन्धी हस्तलिखित पत्र भारत के अनेक जैन शास्त्र भंडारों में सुरक्षित हैं। उदाहरणार्थ, सम्राट शाहजहां के काल का विक्रम संवत् 1683 का तारातंबोल की यात्रा का ठाकुर बुलाकीदास का यात्राविवरण रूप नगर, दिल्ली के शान्तिनाथ जैन, मन्दिर के शास्त्र भंडार में मौजूद है। __ चीनी तुर्किस्तान से भी अनेक स्थानों के प्राचीन चित्र मिले हैं। उनमे जैन धर्म से सम्बन्ध रखने वाली घटनायें भी चित्रित है। अध्याय 18 यूनान में जैन धर्म यूनान मे भी सभ्यता का विकास श्रमण सस्कृति की प्रगति के साथ-साथ लगभग 1500 ईसा पूर्व में प्रारम्भ हुआ। वहां भी लोकहितैषी श्रमण सन्तों की परम्परा अत्यन्त प्राचीन है जो कर्मकाण्ड से दूर रहकर सरल जीवन-यापन का उपदेश देते थे। इसी समय वर्तमान तुर्की और उससे दक्षिण में लेबनान और सीरिया मे हत्ती और मितन्नी सभ्यतायें विकसित हो रही थीं। इन दोनो सभ्यताओं की तत्कालीन भारतीय सभ्यता से गहरी समानता थी। दोनो के आराध्य देव तक समान थे। ये वस्तुत: जैन श्रमण सभ्यतायें ही थीं। दोनो में पुराहितों और सन्यासियो की सुस्थापित परम्पराये थीं। इनका सीधा प्रभाव यूनान की सभ्यता और उसकी उत्तराधिकारी रोम की सभ्यता पर भी पड़ा। सिकन्दर 324 ईसा पूर्व में भारत से लौट गया और 323 ईसा पूत्र मे उसका निधन हुआ। उसके पश्चात् सैल्यूकस ने कब भारत पर आक्रमण किया इसका समाधान उडीसा के हाथी गुंफा-अभिलेख में है। मगध-यूनान संघर्ष 315 ईसा पूर्व में हुआ था और उस समय मगध पर बृहस्पति-मित्र (बिन्दुसार) का शासन था। हाथी गुंफा अभिलेख से यह भी ज्ञात होता है कि वह संमर्द इतिहास प्रसिद्ध सन्धि में समाप्त हुआ। किन्तु
SR No.010144
Book TitleVidesho me Jain Dharm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGokulprasad Jain
PublisherBharat Varshiya Digambar Jain Mahasabha
Publication Year1997
Total Pages113
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size4 MB
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