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________________ विदेशों में जैन धर्म अध्याय 8 चीन और मंगोलिया क्षेत्र में जैन धर्म ऋषभदेव ने अष्टापद पर्वत पर जाकर ध्यान और तपस्या की थी। अष्टापद का अर्थ है आठ पर्वतों का समूह. जिसमें एक पर्वत प्रमुख होता है। प्राचीन भूगोल और प्राच्य विद्याशास्त्रियों ने सुमेरु या मेरु पर्वत का विस्तार से वर्णन किया है। यह मेरु पर्वत ही आज का पामीर पर्वत है। चीनी भाषा में "पा" का अर्थ होता है पर्वत तथा "मेरु" से "मीर" बन गया। इस प्रकार यह पामीर बना। पामीर का अन्य स्वरूप व लक्षण भी प्राच्य शास्त्रोक्त हैं। इससे पूर्व मे तत्कालीन विदेह अर्थात् चीन है। ऋषभ देव ने कैवल्य प्राप्ति के पश्चात् अष्टापद क्षेत्र मे आत्ममार्ग का प्रचार किया। वे चीन, साइबेरिया, मंगोलिया, मध्य एशिया, यूनान आदि क्षेत्रो में प्रचारार्थ गये। उनसे प्रसूत धर्म ताओ धर्म कहलाया जिसने उस सम्पूर्ण क्षेत्रको प्रभावित किया। "ताओ" शब्द का अर्थ होता है आत्ममार्ग। चीन के महात्मा कन्फ्यूशियस ने भी मानव को प्रेरणा प्रदान करते हुए कहा है कि आत्म-सस्कार मे ही मनुष्य को पूर्ण शक्ति लगानी चाहिए तथा आत्मदर्शन ही वस्तुतः विश्व दर्शन है। ऋषभदेव ने कैलाश पर्वत पर तपस्या की थी। कैलाश पर्वत के निकट ही ऋषम पर्वत है जिसका उल्लेख बाल्मीकि रामायण और अन्य रामायणों में हुआ है। जैन परम्परा के अनुसार ऋषभ पर्वत का पूर्वनाम नामि पर्वत था। चीन के प्रोफेसर तान यून शान ने लिखा है कि तीर्थंकरों ने अहिंसा धर्म का विश्व भर में प्रचार किया था। चीन की संस्कृति पर जैन संस्कृति का व्यापक प्रभाव दृष्टिगोचर होता है। चीन पर ऋषभदेव के एक पुत्र का - शासन था। जैन सन्तों ने चीन में अहिंसा का व्यापक प्रचार-प्रसार किया था। चीन के साथ और पश्चिम और उत्तर-पश्चिम के पठारों खोतान, काशगर आदि क्षेत्रों के साथ भारत के सम्बन्ध और भी प्राचीन हैं। अति प्राचीन काल में भी श्रमण सन्यासी वहां विहार करते थे और वहां उनके श्रमण संघ सुस्थापित हो चुके थे। ईसा पूर्व प्रथम शती में बौद्ध धर्म के
SR No.010144
Book TitleVidesho me Jain Dharm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGokulprasad Jain
PublisherBharat Varshiya Digambar Jain Mahasabha
Publication Year1997
Total Pages113
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size4 MB
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