SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 15
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ विदेशों में जैन धर्म 15 केन्द्रो की खुदाई से प्राप्त सामग्री के आधार पर यह बात सुनिश्चित हो चुकी है कि वैदिक आर्यगण लघु एशिया और मध्य एशिया के देशो से त्रेतायुग के प्रारम्भ मे लगभग 3000 ईसा पूर्व मे, इलावर्त और उत्तर पश्चिम खैबर दर्रो से होकर सर्वप्रथम पंजाब मे आये और धीरे-धीरे आगे बढकर शेष भारत में फैल गये। सिन्धुघाटी सभ्यता के केन्द्रों की खुदाई से अन्य प्रभूत सामग्री के साथ अर्हत् ऋषभ की कायोत्सर्ग मुद्रा मूर्तिया तथा सिर पर पांच फण वाली सुपार्श्वनाथ की पाषाण मूर्तियां तो मिली है किन्तु वैदिक यज्ञ-प्रधान सभ्यता की सामग्री यज्ञ कुंड आदि प्राप्त नहीं हुए। इस पुरानी सभ्यता के आधार से जो पुरातत्त्ववेताओं के मत से ईसा पूर्व तीन हजार वर्ष प्राचीन है, निश्चित रूप से कहा जा सकता है कि उस समय तक भारत में वैदिक ओर हिसक यागयज्ञों का कोई प्रचलन नहीं था । किन्तु अर्हतों की उपासना प्राग्वैदिक काल से इस देश में प्रचलित थी। वेदों में शिव नाम कहीं नहीं आया है । ऋषभ और रुद्र दोनों प्रतीक ऋषभ के ही हैं। धर्मानन्द कांसाबी 50 के अनुसार, परीक्षित और जनमेजय से पहले के समय में द्वापर युग मे हिंसा प्रधान यज्ञ याग आदि का प्राधान्य नहीं था । परीक्षित और जनमेजय ने हिंसाप्रधान यज्ञयागादि को अधिक से अधिक वेग और उत्तेजन दिया। यह समय पार्श्वनाथ का है। इसका विरोध महावीर और बुद्ध ने किया। ---- बाइसवे तीर्थकर अरिष्टनेमि कृष्ण के ताऊ समुद्र विजय के पुत्र थे । उनके समय में विवाह प्रसगों मे मास भक्षण की प्रथा थी जिसका उन्होंने घोर विरोध किया और इसी प्रसंग को लेकर वे ससार से विरक्त हो गये। और अगर बर गये । इतिहासज्ञों ने कृष्ण का समय 3000 ईसा पूर्व से भी पहले का माना है । समकालीन होने के नाते यही समय अरिष्टनेमि का 1 1 था। डॉ. रामधारी सिंह दिनकर के अनुसार, "यह मानना युक्तियुक्त है कि श्रमण संस्था भारत में आर्यो के आगमन से पूर्व विद्यमान थी और वैदिक धर्मानुयायी ब्राह्मण इस संस्था को हेय समझते थे। 51 वैदिक साहित्य यजुर्वेद आदि तथा पुराण साहित्य प्रभास पुराण आदि मं जैन धर्म के बाइसवें जैन तीर्थकर अरिष्टनेमि का स्तुतिगान किया गया
SR No.010144
Book TitleVidesho me Jain Dharm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGokulprasad Jain
PublisherBharat Varshiya Digambar Jain Mahasabha
Publication Year1997
Total Pages113
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size4 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy