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________________ विदेशों में जैन धर्म 100 थे तथा इनका उल्लेख इसी पुस्तक में अन्यत्र पहले किया जा चुका है। इस सम्पूर्ण परिक्षेत्र में श्रमण संस्कृति की व्यापक प्रभावना रही। पार्श्वनाथ, महावीर, बुद्ध आदि की विहारभूमि होने तथा सैकडों विहारों के यहां पर विद्यमान होने के कारण इसके एक प्रदेश का नाम "विहार" ही पड़ गया। महावीर की व्यापक और अपूर्व प्रभावना स्वरूप उनके नाम पर अनेक प्रक्षेत्रो के नाम भी वर्धमान, मानभूम वीरभूम सिंहभूम आदि पड़ गये। पार्श्व - महावीर युग में सम्पूर्ण कामरूप प्रदेश (बंगलादेश ). पूर्वी क्षेत्र. बगाल आदि में जैन संस्कृति की व्यापक प्रभावना विद्यमान रही। उस युग में इस सम्पूर्ण क्षेत्र में निवसित जैन धर्मानुयायी "श्रावक" कहलाते थे जो आज भी इस क्षेत्र मे "सराक" के नाम से जाने जाते हैं, 43 और आज उनकी जनसख्या लगभग 15 लाख है जो बगलाभाषी क्षेत्र, बिहार, छोटा नागपुर, सथाल क्षेत्र और उड़ीसा में फैली हुई है। उन्होंने इस क्षेत्र मे हजारो जैन मन्दिर बनवाये और जैन तीर्थंकरो, गणधरों, निर्गन्धों आदि की हजारो मूर्तिया स्थापित कराई जो आज भी इस क्षेत्र में व्यापकता से उपलब्ध होती है। आज भी सम्पूर्ण सराक जाति पूर्णतया अहिंसावादी एवं शाकाहरी है। 44 वे दिन में भोजन करते हैं। ऋषभदेव, आदिदेव, पार्श्वनाथ आदि उनके कुल देवता हैं। 1023 ईस्वीं में जब चोलनरेश राजेन्द्र देव ने बगाल नरेश महीपाल पर आक्रमण किया तब चोल सेना ने आते-जाते समय धार्मिक द्वेषवश सराक जैन मन्दिरो को ध्वस कर दिया। इसके बाद पाण्ड्य नरेश ने लिंगायत शैव सम्प्रदाय के उन्माद मे सराको के जैन धर्मायतनो का विनाश किया और सराकों को धर्मपरिवर्तन करने पर बाध्य किया। सराको के व्यापार-धन्धे नष्ट कर दिये गए और समय-समय पर हज़ारों निरीह सराको का वध कर दिया गया। आज भी इस क्षेत्र में सर्वत्र सराकों के बहुमूल्य जैन मन्दिर, कलापूर्ण मूर्तियां और अन्य विपुल जैन कला कृतियां विद्यमान है। इन मन्दिरो मे ऋषभदेव, पार्श्वनाथ, महावीर एवं अन्य सभी तीर्थंकरों, धरणेन्द्र, पद्मावती आदि की मनोज्ञ मूर्तिया विराजमान है। वस्तुतः सम्पूर्ण बंगलाभूमि पार्श्वनाथ, महावीर एवं अन्य अनेक तीर्थंकरों की विहार भूमि रही है। बंगलादेश और परिवर्ती क्षेत्र में जैन धर्म की महती प्रभावना महावीर पूर्व काल से ही रही है। सर्वत्र अनेक जैन बस्तियां और तीर्थ क्षेत्र विद्यमान
SR No.010144
Book TitleVidesho me Jain Dharm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGokulprasad Jain
PublisherBharat Varshiya Digambar Jain Mahasabha
Publication Year1997
Total Pages113
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size4 MB
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