SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 83
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ • *निर्मलचन मोजमा तार तारे कर्मणवाम् । प्रस्ताव दियामा बन्दे गद्गुणालबचे॥ रत्नत्रय एक पारिभाषिक शब्द है जिसका अर्थ है तीन रत्न । पौद्गलिक पृथ्वीकायिक पदार्थों में रत्न सर्वाधिक बहुमूल्य पदार्थ हैं। हमारी इन्द्रियाँ पौद्गलिक पदार्थों को ही ग्रहण कर पाती हैं अत: इन्द्रियातीत आत्मिक गुणों एवं अन्य महत्त्वपूर्ण चेतन-अचेतन पदार्थों को उनकी अलौकिक बहुमूल्पता के कारण रत्न की उपमा देकर समझाया जाता है। हम देव-शास्त्र-गुरु की पूजा में पढ़ते हैं . प्रथम देव असंत मुन मिति, गुरु नियन्ब महन्त मुकतिपुर पन्त र तीन रतन जग मांहि सो ये मवि बाइये, सिनकी भक्ति प्रसाद परमपद पाये। इन पंक्तियों में देव-शास्त्र-गुरु को तीन रत्न कहा गया है। जिनागम में सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र आत्मा को परमात्मा बनाने के लिये तीन रत्नों के रूप में सबल कारण माने गये हैं अतः उन्हें रलत्रय के रूप में परिभाषित किया जाता है। आगम में रत्नत्रय का अर्थ प्राय: सम्यग्दर्शन-सम्यग्ज्ञान-सम्यक्चारित्र ही मिलता है। आचार्य उमास्वामी भगवंत ने अपने तत्त्वार्थसूत्र ग्रन्थ में रत्नत्रय शब्द का प्रयोग कहीं नहीं किया परन्तु पहले ही सूत्र में सम्यग्दर्शन-सम्यग्ज्ञान-सम्यक्चारित्र को मोक्षमार्ग बताकर उनका महत्त्व और बहुमूल्यता सूचित कर दी। आगे तस्वार्थसून ग्रन्थ के टीकाकार आचार्यों एवं विद्वानों ने इन तीन को प्राय: रत्नत्रय शब्द से उल्लिखित किया है। आचार्य कार्तिकेयस्वामी ने धर्म की परिभाषा करते हुए रत्नत्रय को भी धर्म बताया है - मम्मो पशुमहायो, समादिपायो । बसविडो धम्मो । प . बम्बों, जीवा रस्नो पम्मो ॥' तस्वार्थसूत्र ग्रन्थ का प्रथम सूत्र 'सभ्यम्बनिशागपारिवानि भोव-मार्गः' में अत्यंत गंभीर अर्थ समाहित है । उसमें मोक्षमार्गः एकवचत लिखकर आचार्य महाराज स्पष्ट कर रहे हैं कि सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र तीनों के मिलने से ही मोक्षमार्ग बनता है और इनकी पूर्णता से ही मोक्ष की प्राप्ति होती है। इनमें से कोई एक या दो पृथकरहकर मोल के लिये कारण नहीं बनते। कहा भी है - - - १. कार्तिकमायुप्रेक्षा, माथा 478. *सुषमा प्रेस परिसर, सतना485001, 07672-234960,257299
SR No.010142
Book TitleTattvartha Sutra Nikash
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRakesh Jain, Nihalchand Jain
PublisherSakal Digambar Jain Sangh Satna
Publication Year5005
Total Pages332
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size20 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy