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________________ एवं धर्मकीर्ति के पर आचार्य विद्यानन्द मे स्वयं ही गद्यात्मक भाष्य भी लिखा है पाक की तरह पद्यात्मक शैली में लिखा गया है। इ समानता करने वाला जैनदर्शन में ही नहीं आचार्य विद्यानन्द मे तत्त्वार्थसूत्रगत विषयों की अत्यन्त सूक्ष्म एवं विस्तृत विवेचना अपने इस ग्रन्थ में की है। प्रथम अध्याय के एक स्थल को उद्धृत कर उनकी विवेचन शैली का परिचय देना चाहूँगा, जहाँ वे श्रुतज्ञान के सामान्य प्रकाशकत्व या विशेष प्रकाशकत्व का कथन करते हुए समाधान करते हैं + सामान्यमेव श्रुतं प्रकाशयति विशेषमेव परस्परनिरपेक्षमुभयमेवेति वा शंकामपाकरोति । यह जैनदर्शन के प्रमाणभूत ग्रन्थों में प्रथमकोटि का है। अपितु किसी अन्य दर्शन में भी कोई ग्रन्थ नहीं है। भनेकान्तात्मकं वस्तु संप्रकाशयति सुतं । सबोधत्वाद्यमानत्वबोध इत्युपपत्तिमत् ॥ अर्थात् 'सामान्यविशेषात्मक अनेकान्तरूप वस्तु को श्रुतज्ञान अवगत करता है। जिस प्रकार इन्द्रियों से उत्पन्न हुआ साव्यावहारिक प्रत्यक्षज्ञान अनेकान्तात्मक अर्थ का प्रकाशन करता है, उसी प्रकार श्रुतज्ञान सामान्यविशेषात्मक वस्तु को प्रकाशित करने में समर्थ रहता है। अतः 'अनेकान्तात्मक वस्तु श्रुत प्रकाशयति, सद्बोधत्वात् ।" तत्वार्थसार आचार्य अमृतचन्द्रसूरि की मौलिक रचनाओं में अन्यतम रचना है तत्त्वार्थसार। आपकी लेखनी ने जैनसत्त्वव्यवस्था की निरूपक तीन टीकाओं में जो जादू बिखेरा है उससे जहाँ आपके पाण्डित्य एव भाषाधिकार का ज्ञान होता है वहीं पाठक इन टीकाओं का परिशीलन कर अपने को धन्य मान उठता है। विक्रम की दशवीं शताब्दी में निर्मित तत्त्वार्थसार ग्रन्थ मूलतः तत्त्वार्थसूत्र की विषय वस्तु पर ही आधारित है। किन्तु इसमें प्रमेयों को अतिरिक्त रीत्या भी समाविष्ट किया है, जिससे यह मौलिकता का आभास देने लगा है। यह ग्रन्थ नौ अध्यायों में विभक्त है जिनमें क्रमश: ५४, २३८, ७७, १०५, ५४, ५२, ६०, ५५ एवं २३ = ७१८ पद्य हैं। इन अधिकारों के नाम तत्त्वार्थसूत्र के अनुसार ही मोक्षमार्गाधिकार, जीवतस्वनिरूपणाधिकार, अजीवाधिकार, आसवतस्त्वाधिकार, बन्धतत्त्वाधिकार, संवरतत्त्वाधिकार, निर्जरातत्त्वाधिकार, मोक्षतत्त्वाधिकार एवं उपसंहार हैं। इसकी विषय-वस्तु को विस्तृत करने के लिए आचार्य अमृतचन्द्रसूरि ने तत्त्वार्थसूत्र की तस्वार्थवार्तिक टीका के साथ प्राकृतपंचसंग्रह आदि ग्रन्थों का उपयोग किया है। जिनके तुलनात्मक अनेक स्थल प्रस्तुत किये जा सकते हैं किन्तु विस्तारभय से मात्र एक-एक ही दृष्टव्य है - पंचसंग्रह १/१६ नवमालिया मसूरीचवद्धमानतुल्लाई । दिय संठागाई फार्स पुन नेगठाने || नाममसूरातिमुक्तेसमाः क्रमात् । सोमाविवाणजिज्ञाः स्युः स्पर्शनं नैकसंस्थितिः ॥ तत्वार्थसार २ / ५० १. सवालोकवार्तिक, १/२६/१५-१८,
SR No.010142
Book TitleTattvartha Sutra Nikash
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRakesh Jain, Nihalchand Jain
PublisherSakal Digambar Jain Sangh Satna
Publication Year5005
Total Pages332
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size20 MB
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