SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 72
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ 16/तस्वार्थमन-निकाय आचार्य पूज्यपाद ने तत्वार्थवृत्ति अर्थात् सर्वार्थसिद्धि में मिथ्यात्व के पांच भेदों का कथन करते हुए पुरुषाद्वैत एवं श्वेताम्बरीय निर्ग्रन्थ-सग्रन्थ, केवली-कवलाहार तथा स्त्री-मुक्ति आदि की मान्यताओं को विपरीत मिथ्यात्व कहा है।' इन जैसी अनेक विशेषताओं के भण्डार स्वरूप आचार्य पूज्यपाद की तस्वार्थवृत्ति एवं स्वयं पूज्यपाद जैन साहित्य के विशाल गगन के उन ज्योतिर्मान नक्षत्रों में से हैं, जो अपनी ही दीप्ति से भास्वत हैं और उनका प्रकाश मोहाच्छन्न जिज्ञासाओं को उचित एवं पर्याप्त मार्गदर्शन कराने में समर्थ है। यह वह कृति है जिसे आज भी श्वेताम्बर मतानुयायी आचार्य उमास्वाति की स्वोपज्ञ टीका मानते हैं। किन्तु पं. कैलाशचन्द्र शास्त्री ने अनेक सन्दर्भो पर विचार करते हुए इसे संदिग्ध ही माना है। जैसा कि उनका कथन है - 'भाष्य की स्वोपशता सन्दिग्ध है। इन्हीं के मत से इसे आचार्य पूज्यपाद एवं आचार्य अकलंकदेव के बाद की रचना माना जाना चाहिए। कारण इसके अन्त:परीक्षण से ज्ञात होता है कि इसमें आचार्य अकलकदेव के अनेक सन्दर्भो का यथावत् या किञ्चित् परिवर्तन के साथ शब्दश: अनुकरण किया गया है । जिसके उदाहरण भी उन्होंने प्रस्तुत किये हैं। भाष्य के परिशीलन से ज्ञात होता है कि भाष्यकार सैद्धान्तिक एव आगमिक ज्ञान में निपुण थे। इन्होंने सूत्रों का साधारण अर्थ करने के साथ-साथ जहाँ आवश्यक प्रतीत हुआ वहाँ सम्बद्ध आगमिक या सैद्धान्तिक विषयों का विवेचन किया है। कतिपय सूत्रों की उत्थानिका न होने से अर्थ को स्पष्ट करने में कठिनाई प्रतीत हुई है। कहीं-कहीं तो उनका सामंजस्य भी बिगड़ गया है। तत्वाचार्तिक ____ अपनी कृतियों के माध्यम से अपनी पहचान स्थापित करने वालों में आचार्य अकलंकदेव का नाम अग्रगण्य पंक्ति में समाविष्ट है। आप जैन वाङ्मय के उन दीप्तिमान प्रकाशपुंजों में परिगणित होते हैं, जिनकी आभा से जैन दार्शनिक साहित्य कीर्तिमान स्थापित कर सका । सातवीं-आठवीं शताब्दी के इन जैसा प्रखर तार्किक एवं दार्शनिक अन्य नहीं हुआ। बौद्धदर्शन में धर्मकीर्ति को जो सम्मान प्राप्त है वही सम्मान आचार्य अकलंकदेव को जैनदर्शन में प्राप्त है। न्याय एवं दर्शन के क्षेत्र में तत्कालीन प्रचलित विवादों के समाधान देने में जो महारत आपने हासिल की, वह अनुपम है। आपकी अनेक कृतियों में एक तत्वार्यवार्तिक नाम से है। ग्रन्थ के नामकरण का श्रेय स्वयं कर्ता को ही है, वे आद्य श्लोकों में एकत्र लिखते हैं - 'वक्ये तत्त्वार्यवार्तिकम् जो सार्थक है। इसका अपर नाम तत्स्वार्थराजवार्तिक रूप में भी जाना जाता है। इस ग्रन्थ में आपने वार्तिकों का निर्माण कर उस पर भाष्य भी स्वयं ही लिखा है। इस तस्वार्थकार्तिक में सस्वार्थसूत्र के विषय के समान ही सैद्धान्तिक एवं दार्शनिक विषयों का प्ररूपण है। यहाँ १.स. सि. ७/१२. २. वहीं, 24, ३. जैन साहित्य का इतिहास भाग २, पृ. २९४ ४. तात्यायवार्तिक मंगलाचरण,
SR No.010142
Book TitleTattvartha Sutra Nikash
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRakesh Jain, Nihalchand Jain
PublisherSakal Digambar Jain Sangh Satna
Publication Year5005
Total Pages332
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size20 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy