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________________ तत्वार्थस्न-लिका/xxvHI की निर्जरा तो सारी दुनिया करती है, अरे सम्यग्दृष्टि तो वही है, जो पुण्य की निर्जरा करे । यह सब जैनागम को न समझ पाने की परिणति है या आगम के अजीर्ण होने का दष्फल है। थोड़ा इसे समझे कि पुण्य-पाप को किस अपेक्षा से एक कहा और किस अपेक्षा से अलग-अलग कहा कि पुण्य और पाप दोनों कर्म की सतान है, इस अपेक्षा से एक हैं। लेकिन आचार्यों ने कहा "हेत कार्यविशेषाम्यां विशेष: स्यात् पुण्यपापयोः । हेतुशुभाशुभी भारी, कार्ये च सुखासुखे ।।' हेतु और कार्य की विशेषता से पुण्य और पाप मे अन्तर परिलक्षित होता है । पुण्य और पाप का हेतु क्रमश: शुभ और अशुभ भाव है और उनका कार्य क्रमशः सुख और दुःख है। हमें दुःख उत्पन्न करने वाले कारणो से बचना चाहिए और सुख उत्पन्न करने वाले साधनों को जुटाना चाहिए। कर्म मामान्य होने से दोनो एक है, लेकिन समानता के आधार पर उनकी गुणवत्ता की एकता को नहीं स्वीकारा जा सकता । ऐसा ही आचार्य गुणभद्र स्वामी ने आत्मानुशासन में कहा है कि- 'पुण्य और पाप दोनों एक हैं लेकिन दोनों के गुणों में अन्तर है। लाली - सुबह की होती है और शाम की होती है। लाली परब में होती है और पश्चिम में भी होती है। देखने में यह जरूर एक है लेकिन गणों मे कितना अन्तर है ? एक जगाती है तो दूसरी सुलाती है। पुण्य प्रात: की लाली है, जो हमारी चेतना में ऊर्जा का मचार करती है और पाप शाम की लाली है जो आत्मा में मूर्छा और सुषुप्ति के भाव लाती है। एक बार एक सज्जन मेरे पास आये। मै समयसार का स्वाध्याय कर रहा था। सयोग मे पुण्य-पाप अधिकार चल रहा था। उन्होंने पूछा- महाराज! पुण्य और पाप में क्या अन्तर है ? मैने जबाव दिया - पहला अन्तर तो यही कि एक मे ढाई अक्षर हैं तो दूसरे में दो अक्षर हैं। वे बोले- नही महाराज ! मैं निश्चय से पूछना चाह रहा है। मैने कहा - भैया यदि निश्चय से पूछो तो निगोदिया जीव और सिद्ध भगवान मे कोई अन्तर नहीं है। परन्तु कल से आप भगवान की जगह निगोदिया की मूर्ति स्थापित करके उनकी पूजा करना शुरू मत कर देता । तत्त्व का विवेचन अलग-अलग भूमिका के अनुरूप होता है। पानी मल में भी होता है और नाली में भी। परन्तु नल का पानी आप पीते हैं और नाली के पानी से आप परहेज करते हैं। यदि पाप और पुण्य में समानता की बुद्धि रख लोगे तो कही नल की जगह नाली का पानी हाथ में रख दे तो नाराज मत होना । आचार्यों ने पुण्य को मोक्षमार्ग में उपादेय निरूपित करते हुये कहा है - 'मोकास्यापि परमपुण्यातिशयचारित्रविशेषात्मकपौरुषाभ्यामेव संभवात् ।' अर्थात् मोक्ष परम पुण्य के अतिशय और चारित्र विशेषात्मक पुरुषार्थ के बल पर ही सम्भव है। बिना पुण्य के मोक्ष की उपलब्धि नहीं हो सकती । आचार्य विद्यानन्दी जी ने तत्त्वावश्लोकवार्तिक में कहा कि - पुण्य की निर्जरा करने बाला महान है, लेकिन पुण्य की निर्जरा तो कभी हो ही नहीं सकती। बाचार्य वीरसेन स्वामी ने पुण्य की निर्जरा का निषेध करते हुये एक बड़ा मनोवैज्ञानिक हेतु दिया है। उन्होंने कहा कि पुण्य को सम्यग्दृष्टि हाथ भी नहीं लगाता। यह ध्यान रखना चाहिये कि पुण्य और पाप का सम्बन्ध केवल अनुभाग मे है। स्थितियाँ तो सबकी पापही हैं। इस कारण से चौदहवें गुणस्थान में भी उत्कृष्ट अनुभाग सब पुण्य प्रकृतियों का बना रहता है। यहाँ प्रश्न उठाया गया कि चौदहवें मुणस्थान में सारे कर्मों की स्थितियों गला डाली और उनने पुण्य का घात क्यों नहीं किया?माबाई बीरसेन महाराज ने कहा - 'सम्माशी पसत्वकम्माणमणुभागं सहमदि' अर्थात् सम्यग्दृष्टि पाण्यकर्मका अनभागबात नहीं करता, क्योकि पुण्य का घात करने के लिये संक्लेश चाहिये। और सक्लेश करोगे तो पाप
SR No.010142
Book TitleTattvartha Sutra Nikash
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRakesh Jain, Nihalchand Jain
PublisherSakal Digambar Jain Sangh Satna
Publication Year5005
Total Pages332
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size20 MB
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