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________________ तस्वार्थसूत्र- निकव xx हमारे यहाँ यह बताया गया है कि जब हम एक स्थूल शरीर को छोड़कर दूसरी जन्म स्थिति में जाते हैं, मृत्यु के बाद हम जाते हैं तो हमारा स्थूल शरीर यहीं छूटता है। अपने सूक्ष्म और संस्कार शरीर के बल पर हम उस स्थान पर जाते. हैं, जहाँ हमें जन्म लेना है और वहाँ जाकर के हम नये शरीर के निर्माण की प्रक्रिया प्रारम्भ करते हैं। हमारा यह जो शरीर 'विकसित होता है, नौ माह माँ के पेट में / गर्भ में रहने के बाद जन्म लेते हैं। जन्म तो बहुत बाद का है, वस्तुतः हमारा जन्म तो तभी हो जाता है जब हम अपनी योनि स्थान में पहुँचते हैं। उत्पत्ति का नाम ही जन्म है। इसका नाम तो योनि निष्क्रमण रूप जन्म है। वहाँ जाने के बाद प्रत्येक जीवात्मा कुछ विशेष प्रकार की पौगलिक शक्तियाँ अर्जित करता है। उन शक्तियों को आगम की भाषा में पर्याप्तियाँ कहते हैं। इन पर्याप्तियों को जो परिपूर्ण कर लेता है, वही जीव अपने जीवन के निर्माण में और जीवन के संचालन में सक्षम होता है। आगम में 6 पर्याप्तियों कही गई हैं, वे हैं- आहार, शरीर, इन्द्रिय, श्वासोच्छ्वास, भाषा और मन । मैं समझता हूँ आधुनिक विज्ञान में जो जेनेटिक इंजीनियरिंग की बात है, वह शरीर पर्याप्तियों से सम्बन्धित है। शरीर पर्याप्ति ही जीन्स और क्रोमोसोम्स का निर्माण है। अब जब जीन्स और क्रोमोसोम्स डेव्हलप होगा तभी शरीर भी डेव्हलप होगा। आपने इसे नामकर्म से जोडा, वह सुमगत है। क्योंकि नामकर्म या किसी भी कर्म के साथ यह बात जुड़ी है कि कर्म अपना फल परिस्थिति और परिवेश के अनुरूप देते हैं। कर्म अपना फल देने में पूर्णतः स्वतन्त्र नहीं हैं। द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव के परिवर्तन से कर्म के प्रभाव में परिवर्तन आ जाता है। इस हिसाब से देखा जाये तो कर्म सिद्धान्त के साथ जेनेटिक इंजीनियरिंग का पूरा सम्बन्ध है। आनुवंशकीय का पूरा सम्बन्ध है। यही कारण है कि पुण्यात्मा जीव धनपतियों के यहाँ ही जन्म लेते हैं, गरीब के यहाँ जन्म नहीं लेते। जहाँ पर माता-पिता सुन्दर हैं, तो उनके बच्चे भी सुन्दर होते हैं, क्योंकि कर्म को ऐसा पुण्य क्षेत्र, काल और भाव मिलता है, ये तो मैंने एक स्थूल दृष्टि दी है। मुझे विश्वास है कि इस विषय की गहराई में और जाया जाय और कुछ और मोती निकाल कर लाये जायें। तभी यह बात लोगों तक पहुँचाने में सफल हों, कि जो बात आज विज्ञान कह रहा है, वही जैनदर्शन मे बहुत पहले कही जा चुकी है। व्यानविषयक मान्यताओं का समायोजन स्वार्थसूत्र की ध्यान विषयक मान्यता और अन्य दिगम्बराचार्यो की मान्यता में क्या मौलिक अन्तर है, इस बात को हमें स्पष्टतया रेखांकित करना चाहिये ताकि पाठक उसका तुलनात्मक रूप से अध्ययन कर सकें। खासकर जो ध्यान देने योग्य है, ध्यान विषयक जो परम्परा जैनाचार्यों के मध्य आती है उसमें धर्मध्यान और शुक्लध्यान विषयक स्वामी की परम्परा को हमें महत्त्वपूर्ण रूप से उल्लेखित करने की आवश्यकता है। उमास्वामी की परम्परा में और तत्त्वार्यसूत्र की टीकाओं में धर्मध्यान का स्वामी श्रेणी से पहले निरूपित है। श्रेणी में शुक्लध्यान की ही मान्यता प्रचलित रूप से कही जाती है। आचार्य वीरसेन और अन्य प्ररूपणाओं में श्रेणी में धर्मध्यान का भी विधान है। धवला में ही एक जगह लिखा है, 'धर्मध्यानस्य फलं किं ?' धर्मध्यान का फल क्या है ? तो हमें उत्तर प्राप्त होता है- 'मोहनीयस्य खओ धर्मः ध्यानस्य फल' मोहनीय कर्म का क्षय धर्मध्यान का फल है अर्थात् इस मान्यता के अनुसार मोहनीयकर्म का क्षय 10 वे गुणस्थान में होता है। यह धर्मध्यान 10 वे गुणस्थान तक चलता है। उस कथन के अनुसार 12 वे गुणस्थान में क्षपकश्रेणी की अपेक्षा दोनों शुक्लध्यान होंगे और उपशम श्रेणी की अपेक्षा || होगें । इस ध्यान के बहुत पहले शुक्लध्यान होगा। 'वें गुणस्थान में एक और मान्यता के अनुसार दूसरे शुक्लध्यान को भी प्रतिपाति निरूपित किया है। यह धवला की 13 वीं पुस्तक
SR No.010142
Book TitleTattvartha Sutra Nikash
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRakesh Jain, Nihalchand Jain
PublisherSakal Digambar Jain Sangh Satna
Publication Year5005
Total Pages332
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size20 MB
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