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________________ तस्वार्थसूना-निक/AVI तो ऐसी विनम्रता का सहज स्फुरण होने लगता है। हिन्दी, संस्कृत, प्राकृत, अंग्रेजी भाषाविद् आप जैन साहित्य, दर्शन, इतिहास के तलस्पर्शी अध्येता है। ज्ञान, ध्यान और तप की प्रांजल साधना के प्रखर निर्ग्रन्थ साधु हैं। भगवान महावीर और गौतम बुद्ध की अध्यात्म संस्कृति से धनी बिहार भूमि के इतिहास की झलक आपके व्यक्तित्व से झरने की तरह प्रवाहित होती हुई आपके बिहार प्रान्तवासी होने का स्वत: सिद्धप्रमाण है। सन्त जो करता है वहीं बोलता है। उसकी कथनी और करनी की एकरूपता के कारण वाणी में सम्मोहन का जादू और प्रेरणा घुली होती है। वस्तुत: संत वचन ही प्रवचन बन जाते हैं, जो जीवन के नैतिक और धार्मिक विरासत की अनमोल धरोहर होती है। इसी प्रकार आपकी ज्योतिर्मय जीवन कृति मनुष्य की चेतना को ज्योतिर्मय बनाने का एक सशक्त माध्यम है, जो 'तमसो मा ज्योतिर्गमय' की युक्ति को चरितार्थ करता है। सबसे बड़ी बात है प्रवचनकार में सन्तत्व की ऊष्मा का पारदर्शी दर्शन | जिसके मूल में है - आचार्य गरुवर श्री विद्यासागर जी की अपने सयोग्य शिष्यों को दी गई कठोर साधना की अग्निपरीक्षा । जिससे गुजरकर आप जैसे अनेक संघ के साधु दार्शनिक छवि वाले कवि तथा तप की गहन ऊष्मा की स्वर्णिम प्रभा से भास्वत है। आचार्य श्री ने अपने शिष्यों की दीक्षा में स्वयं के तपस्वी व्यक्तित्व और अपने आध्यात्मिक रस का अशदान कर उन्हें इतना स्वावलम्बी, निर्भयी, नि:शंक और अभीक्ष्ण ज्ञानोपयोगी बना देते हैं, कि ये समाज में एक विशिष्ट छाप छोड़ते हैं। मुनि श्री प्रमाणसागर जी ऐसे अग्रिम पंक्ती के शिष्यों में से एक हैं, जिनकी निजला में आत्मसाधना का कोष नजर आता है। अगस्त 2005 में हजारीबाग में पूज्यमुनिश्री के विशेष प्रवचनमाला सुनने का सौभाग्य इन पक्तियों के लेखक को मिला। मुनि श्री के गृहस्थावस्था की माता मोहनीदेवी, पिता श्री सुरेन्द्रकुमार सेठी और अन्य परिवार जनों से भेट कर उसी पावन गृहरज को मस्तक पर लगाने का सौभाग्य मिला, जिसमें मुनि श्री जन्में और बड़े हुये थे। आपके चचेरे भाई श्री सनील जैन एवं ताई श्रीमती विमला जैन, जिन्हें आप भाई कहकर पुकारते थे लगभग एक घण्टे तक उनसे बात करके उनकी मनोगत भावनाओं से रूबरू हुये। उस साक्षात्कार से यह बात सामने आई कि बालक नवीन के जीवन में एक अप्रत्याशित परिवर्तन घटित हुआ। अध्यात्म और धर्म का क, ख, ग न जानने वाला नवीन परम पूज्य के पारस प्रभाव से उनकी सुषुप्त आत्मा ऐसे जाग गई जैसे कोई नींद से जाग जाता है । यह क्रान्तिकारी परिवर्तन उनके नाना जी के नगर दुर्ग में हुआ। जहाँ आचार्य श्री विराजमान थे। उनकी कृपा और आशीर्वाद से ऐसा प्रसाद मिला कि आज एक विश्रुत दिगम्बर संत के रूप में उनकी तेजस्विता प्रगट हो रही है। मुनिश्री के बहुत सारे बालमित्रों, सहपाठियो और शिक्षकों से भी साक्षात्कार किया। उनकी गहरी भक्ति और भावनाओं से अवगत होकर यह सोचने के लिये बाध्य कर दिया कि मुनिश्री में ऐसा क्या सम्मोहन है, जो प्रात: 5 बजे से रात्रि 10 बजे तक श्रद्धालुओं और भक्तों का जमाव कम होता दिखाई नहीं देता। आत्मीय स्पर्श की एक महक सम्पूर्ण वातावरण में बिखरी हुई दिखाई दी। रात्रि को वैयावृत्ति में 3 वर्ष के बालक से लेकर 75 वर्ष के वृद्धजन चरणस्पर्श करते हुये देखे गये। सतत् स्वाध्याय, चिन्तन, मनन की मूल प्रवृत्तियों के धारक होने के साथ आप जैनागम, जैन इतिहास, साहित्य दर्शन के तलस्पर्शी अध्येता हैं। धर्म एक जीवन्त शक्ति है और परम पूज्य मनि श्री स्वयं उस धर्म की गंगोत्री हैं। उनके चिन्तन और चलन में, आचरण व जिहा में अभिन्नता एवं साम्यता है। अतः प्रत्येक व्यक्ति के चित्त पर आप अदभुत प्रवाह छोड़ देते हैं।
SR No.010142
Book TitleTattvartha Sutra Nikash
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRakesh Jain, Nihalchand Jain
PublisherSakal Digambar Jain Sangh Satna
Publication Year5005
Total Pages332
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size20 MB
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