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________________ तस्वार्थसून-निक / 236 श्री दिगम्बर जैन मन्दिर सतना एवं अन्य संस्थाएँ : विकास के क्रम में आज से लगभग डेढ सौ वर्ष पूर्व वर्तमान सतना नगर के स्थान पर हरा-भरा वन प्रदेश था । अंग्रेज शासकों ने सम्पूर्ण भारत पर अपना शासन जमाने की योजना की पूर्ति के लिये यह आवश्यक समझा कि सारे देश को रेलमार्ग से जोड़ा जावे ताकि फौज का आवागमन सरलतापूर्वक हो सके । इसी उद्देश्य से इलाहाबाद और जबलपुर को जोड़ने के लिये रेल की पटरी बिछाई गई। सन् 1863 में रेल लाइन के साथ-साथ छोटी दुकानों की एक छोटी-सी बस्ती बसनी प्रारम्भ हुई । शनैः शनैः इन्हीं से सतना नगर का विस्तार हुआ। जैन वणिक् व्यापार कुशल होते ही हैं, सो आसपास के नगरों, कस्बों और देहातों से अनेक कशल वणिक बस्ती के निर्माण के साथ ही सतना में आकर बसने लगे। बन्देलखण्ड के विभिन्न स्थानों से आये इन जैन धर्मावलम्बियों की आस्था का केन्द्र जिनालय न हो, ऐसा हो नहीं सकता था। उन बन्धुओं ने एक छोटे से जिनालय की नींव रखी सन् 1880 में जिनालय सहित मूलनायक तीर्थंकर श्री नेमिनाथ स्वामी की प्रतिमा की प्रतिष्ठा सपन्न हुई। जैन मन्दिर के निर्माण के पूर्व सतना में एक-दो वैष्णव मन्दिरों की स्थापना की जानकारी प्राप्त होती है, पर इनमे से कोई भी मन्दिर शिखरबद्ध मन्दिर के रूप में नहीं था। इस तरह से श्री दिगम्बर जैन मन्दिर सतना का इतिहास वास्तव मे सतना के निर्माण, विकास और प्रगति का इतिहास है। समय के साथ-साथ मन्दिर जी और वेदियों के आकार-प्रकार में भी परिवर्तन होता आया है। लगभग एक मीटर ऊँचे चबूतरे के ऊपर मजबूत दीवारों एवं स्तम्भों के आधार पर मन्दिर का निर्माण किया गया था। चारों दिशाओं में पाँच दरवाजे थे जो अब भी कुछ परिवर्तनों के साथ मौजूद हैं। पूर्व दिशा की ओर से 3-4 सीढियाँ चढने के बाद बरामदा है, उसके दोनों ओर कमरे हैं। दरवाजे से प्रवेश करने पर छोटा बरामदा, फिर ऑगन और उसके तीनों ओर बरामदे थे। आँगन के दोनों छोर उत्तर और पूर्व में ऊपर जाने के लिये सीढ़ियों थीं। चारों बरामदों पर ऊपर छज्जे एवं कमरे बने हये थे। यहाँ पहले दिगम्बर जैन पाठशाला लगती थी, जो स्थान परिवर्तित होकर सेमरिया चौराहे में स्थित विद्यालय भवन (पूर्व में माता त्रिशला प्रसूतिका गृह) में चली गई है । आँगन और तीनों तरफ के बरामदों व सीढ़ियों को अलग कर वर्तमान में एक सुन्दर विशाल कक्ष के निर्माण का कार्य द्रुतगति से चल रहा है। यहाँ तीन नवीन वेदियों की स्थापना कर तीर्थकर पार्श्वनाथ की सहस्रफणी मूर्तियों की स्थापना होने जा रही है। अत्यन्त भव्य, आकर्षक और मनोज्ञ इन जिनबिम्बों की स्थापना के उपरान्त इस जिनालय की भव्यता में चार-चाँद लग जायेंगे। आँगन व पश्चिमी बरामदे को पार करके बरामदे के उत्तरी-पश्चिमी दिशा में स्थित द्वार से हम अन्दर प्रविष्ट होते हैं । लगभग 30-35 फुट लम्बे कक्ष में हमें उत्तरमुखी प्रथम वेदी के दर्शन होते हैं । वेदी की पहली कटनी का चबूतरा पंचकोणीय व लगभग सवा मीटर ऊँचाई का बना हुआ है। इस पर इतना ही स्थान ऊपर छोडकर वेदी का निर्माण किया गया है। वेदिका के ऊपर तीन सुन्दर शिखर दोनों ओर एवं दो कलशाकृति सुनहरे कलशो सहित हैं। वेदी की परिक्रमा हेतु दो छोटे-छोटे द्वार हैं। तीसरी कटनी के मध्य में श्वेत पाषाण से निर्मित लगभग 3 फुट अवगाहना वाली अत्यन्त मनोज्ञ
SR No.010142
Book TitleTattvartha Sutra Nikash
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRakesh Jain, Nihalchand Jain
PublisherSakal Digambar Jain Sangh Satna
Publication Year5005
Total Pages332
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size20 MB
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