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________________ तत्वार्थसून में स्त्रीमुक्ति निवेध * प्रोफे. रतनचन्द्र जैन भाष्यकार ने भाष्य में स्त्रीमुक्ति तथा स्त्री के तीर्थकरी होने का प्रतिपादन किया है। किन्तु तत्वार्थसूत्र में सर्वत्र मुक्ति निषेधक प्रमाणों से स्त्रीमुक्ति का निषेध होता है क्योंकि स्त्री भी सवस्त्र होती है। वह शारीरिक संरचना विशेष के कारण वस्त्र त्याग नहीं कर सकती । इसके अतिरिक्त भी तत्त्वार्थसूत्र में स्त्रीमुक्ति विरोधी अनेक प्रमाण उपलब्ध होते हैं। यथा - 1. 'बादरसाम्पराये सर्वे सूत्र में कहा गया है कि नौवें गुणस्थान के सवेदभाग पर्यन्त (श्वेताम्बर मान्यता के अनुसार) सभी 22 परीषह होते हैं। इसका तात्पर्य यह है कि नाग्न्यपरीषह भी 9 वें गुणस्थान तक होता है अत: स्त्री नौवें गुणस्थान तक नहीं पहुँच सकती । स्त्री का नौवें गुणस्थान तक का न पहुँच पाना उसकी मुक्ति के विरोध का सूचक है । 2. तत्त्वार्थसूत्रकार ने 'शुक्ले चाद्ये पूर्वविदः'' सूत्र द्वारा भी स्त्रीमुक्ति का निषेध किया है क्योंकि सूत्र में कहा गया है चार प्रकार के शुक्लध्यानों में से आदि के दो ध्यान पृथक्त्ववितर्कवीचार और एकत्ववितर्कवीचार पूर्वविद् (चतुर्दश पूर्वो के ज्ञाता अर्थात श्रुतकेवली) को होते हैं और दिगम्बर तथा श्वेताम्बर दोनों सम्प्रदायों के अनुसार स्त्री को 11 अंगों का ही ज्ञान हो सकता है भले ही आर्यिका है। इससे स्पष्ट है कि उसे चतुर्दश पूर्वो का ज्ञान नहीं हो सकता । फलस्वरूप उसे आदि के दो शुक्ल ध्यान नहीं हो सकते इससे केवलज्ञान होना असम्भव है। किन्तु श्वेताम्बराचार्यो ने तत्त्वार्थसूत्र को श्वेताम्बर सम्प्रदाय के ढाचे में फिट करने के लिए स्त्री को पूर्वो के अध्ययन के बिना ही उनका ज्ञान हो जाने की कल्पना की है श्री हरिभद्रसूरि कहते हैं 'स्त्री वेदादि मोहनीय कर्म का क्षय हो जाने से क्षपकश्रेणी का विशिष्ट परिणाम उत्पन्न होने पर श्रुतज्ञानावरण का विशिष्ट क्षयोपशम होता है। जिससे द्वादशांग के अर्थ का बोधात्मक उपयोग प्रकट हो जाता है, तब अर्थोपयोग रूप से द्वादशांग की सत्ता आ जाती है।" इसके पंजिका टीकाकार चन्द्रसूरीश्वर जी लिखते हैं - 'बारहवें अंग दृष्टिवाद में विद्यमान 'पूर्व' नाम के धुत का १. क. स्त्रीलिंगसिद्धा: संख्येयगुणाः । ..... तीर्थकरतीर्थसिद्धा: स्त्रियः सख्येयगुणाः । - तस्वार्थाधिगमभाष्य, 10/7 ख. एवं तीर्थकरीतीर्थे सिद्धा अपि, - वही 11/7 २. तत्त्वार्थसूत्र. 7/12, स. सि. 7/12, भाष्य,7/12 ३. तत्त्वार्थसूत्र, 7/37 'आद्ये शुक्लध्याने पृथक्त्ववितर्केकत्ववितर्के पूर्वविदो भवतः। - तत्त्वार्थाधिगमभाष्य 1/37 ४. अरहंतचक्कि केसवबलसंभिन्ने या चारणे पुण्णा । गणहरपुलाशय आहारांग चन हु भवति महिलाण ॥ - प्रवचनसारोद्धार, 1506 ५. (द्वादशांगवत् कैवल्यस्य कर्य न बाधः?) कथं द्वादशागप्रतिषेधः? तथा विद्याविग्रहे ततो दोषात्। श्रेणिपरिणती तु कालगतवद् भावतो भावोऽविरुद्ध एव। -ललितविस्तरा,स्त्रीमुक्ति,गा. पृ. 406 * ए/2, मानसरोवर शाहपुरा, भोपाल, (0755) 2424666
SR No.010142
Book TitleTattvartha Sutra Nikash
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRakesh Jain, Nihalchand Jain
PublisherSakal Digambar Jain Sangh Satna
Publication Year5005
Total Pages332
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size20 MB
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