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________________ लक्ष्यार्थसून का नाम मोक्ष है। और जो इस प्रकार समस्त कर्मों से यहाँ छूटकर एक समय मात्र में ही सिद्ध परमेष्ठी बनकर लोक के अन्त में अन्तिम तनुवातवलय के अन्तिम 525 धनुष में जाकर विराजमान हो जाते हैं, वे मुक्त जीव हैं। कर्मक्षय को श्लोकवार्तितकार ने दो प्रकार का कहा है एक प्रयत्नसाध्य और दूसरा अप्रयत्नसाध्य । अर्थात् जिम कर्मो का क्षय प्रयत्न से साध्य किया जाता है वह प्रयत्नसाध्य है और चरमशरीरी जीवों के नरकायु-तिर्यचायु और देवायु इन तीन कर्मों का सता मे अभाव होना ही क्षय माना गया है उसे अप्रयत्नसाध्य क्षय कहा गया है। शेष प्रकृतियों के क्षय को, प्रयत्नसाध्य कहा जाता है। मोक्ष के भेद यद्यपि समस्त कर्मक्षय रूप मोक्ष एक प्रकार का ही है तदपि विभिन्न अपेक्षाओं से भेद करके आचार्यों ने मोक्ष के भेदों का कई प्रकार से निरूपण किया है। किन्ही शास्त्रकारों ने मोक्ष के दो भेद कहे हैं- द्रव्यमोक्ष और भावमोक्ष । द्रव्यसंग्रह गाथा 37 की टीका करते हुए ब्रह्मदेवसूरि ने भावमोक्ष का स्वरूप इस प्रकार कहा है- 'निश्चयरत्नत्रयात्मककारणसमयसाररूपी स्फुटमात्मनः परिणामः यः सर्वस्य द्रव्यभावरूपमोहनीयादिधाति चतुष्टयकर्मणो वहेतु इति' अर्थात् निश्चयरत्नत्रयात्मक कारण समयसार रूप प्रकट आत्मा का जो परिणाम समस्त द्रव्यभाव रूप मोहनीय आदि चार घातिया कर्मो के नाश का कारण है वह भावमोक्ष है। इसका गुणस्थान 13 वां है, अर्थात् अर्हन्त परमेष्ठी भावमोक्ष प्राप्त है । द्रव्यमोक्ष की परिभाषा इस प्रकार कही है - टेकोत्कीर्णशुद्धबुद्धैकस्वभावपरमात्मनायुराविशेवाघातिकर्माणामपि य आत्यन्तिकपृथक् भावो विश्लेषो विघटनमिति द्रव्यमोक्षः स अयोगचरमसमये भवति । अर्थ - टकोत्कीर्ण, शुद्ध, बुद्ध जिसका एक स्वभाव है ऐसे परमात्मा से आयु आदि शेष चार अधाति कर्मों का भी अत्यन्त रूप से पृथक् होना - भिन्न होना, छूट जाना द्रव्यमोक्ष है और वह अयोगकेवली नामक चौदहवें गुणस्थान के अन्तिम समय में होता है। नयचक्रादि ग्रन्थों मे भी मोक्ष के दो भेदो का वर्णन पाया जाता है। आचार्य वीरसेन महाराज ने धवला पुस्तक 13 पृ. 823 पर लिखा है- 'सो मोक्सो तिविहो जीनोमो पोग्गलमोक्सो, जीवपोम्यलमोक्सो चेदि अर्थ - मोक्ष तीन प्रकार का है, - 1. जीवमोक्ष, 2. पुद्गल मोक्ष और 3. जीवपुद्गलमोक्ष | कुछ आचार्यों ने मोक्ष के चार भेद भी किए है- नाममोक्ष, स्थापनमोक्ष, द्रव्यमोक्ष और भाव मोक्ष । अकलकस्वामी ने राजवार्तिक अध्याय 1, सूत्र 7 की टीका करते हुए कहा है- 'सामान्यादेको मोक्षः द्रव्यभावभोक्तव्यभेदावनेकोऽपि ।' अर्थ सामान्य से मोक्ष एक ही प्रकार का है, द्रव्य, भाव और भोक्तव्य की दृष्टि से अनेक प्रकार का भी है। मुक्तजीब और उनकी कुछ विशेष चर्चायें - जैसा ऊपर कहा है मुक्त जीव का लक्षण पचास्तिकाय गाथा 28 मे इस प्रकार कहा है - कम्मममविपक्को उद्धं लोगस्स अंतमधिगंता । सो सम्वणावरिसी महदि सुहमनिदिवमयं || अर्थ - कर्ममल से मुक्त आत्मा ऊर्ध्व लोक के अन्त को प्राप्त करके सर्वज्ञ, सर्वदर्शी, अनन्त अतीन्द्रिय सुख का अनुभव करता है। राजवार्तिककार ने मुक्त जीव का स्वरूप इस प्रकार कहा है- 'निरस्तद्रव्यभावबन्धाः मुक्ता: 1' (अध्याय 2,
SR No.010142
Book TitleTattvartha Sutra Nikash
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRakesh Jain, Nihalchand Jain
PublisherSakal Digambar Jain Sangh Satna
Publication Year5005
Total Pages332
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size20 MB
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