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________________ 218/तस्वार्थसह-निका AAINIK असंख्यातगुणश्रेणीनिर्जरा * सिद्धार्यकुमार जैन आचार्य उमास्वामी महाराज ने तत्त्वार्थसूत्र के नवमें अध्याय में सवर और निर्जरा तत्त्व का वर्णन किया है। पहले सूत्र में संवर का लक्षण कहा तथा दूसरे सूत्र में वह संवर कैसे प्राप्त होगा, इसके कारणों को कहा और तीसरे सूत्र में तपसा निर्जराषकहकर तप को संवर और निर्जरा में संयुक्त कारण निरूपित किया। आगे के सूत्रों में क्रम से विस्तार करते हुये 10 धर्म, 12 भावना, 22 परीषह का वर्णन किया तथा 19 वें सूत्र में बाह्य तप को तथा 20 वें सूत्र में अंतरंग तप का वर्णन करते हुये इनके भेद-प्रभेदों को बताया । अन्तिम तप में ध्यान के वर्णन में शुक्लध्यान का वर्णन करने के पश्चात् सूत्र क्रमांक 45 में असंख्यातगुणश्रेणी निर्जरा के पात्रों को दर्शाया। इससे एक दृष्टि प्राप्त होती है कि आखिर यह कौन सी निर्जरा है, इसका कार्य क्या है, कौन-कौन-से जीव इसे कर सकते हैं, किन-किन कारणों से यह होती है यही सभी बातों पर चिन्तन करने का प्रयत्न यहाँ किया जा रहा है। निर्जरा क्या है : आत्मा के साथ सश्लेष संबध को प्राप्त पुद्गलकर्मो का एक देश आत्मा से झर जाना निर्जरा है एवं सम्पूर्ण कर्मों का झर जाना मोक्ष है यह सामान्य लक्षण कहा है। निर्जरा 2 प्रकार की बतलाई गई है। यथा - 1 सविपाकनिर्जरा 2. अविपाकनिर्जरा। 1. सविपाकनिर्जरा सभी संसारी जीवों के होती है, बिना पुरुषार्थ के ही होती है । पूर्व बंधा हुआ कर्म उदय में आता है अपना फल देकर निर्माण हो जाता है यह पहली सविपाक निर्जरा है। 2. अविपाकनिर्जरा - पुरुषार्थ पूर्वक उदय समय के पूर्व में कर्मों को उदय में लाकर निर्जरित करना अविपाक निर्जरा है। इसके आगम में कई उदाहरण दिये गये हैं, जिससे ये दोनों निर्जरा समझी जा सकती हैं यथा सविपाकनिर्जरा पेड़ में स्वयं पकने के बाद आम गिरता है तथा दूसरी कच्चे आम को तोडकर पाल लगाकर भिन्न-भिन्न तरीकों से उसे पकाया जाता है। यही दूसरी अविपाक निर्जरा ही मुख्यत: मोक्षमार्ग में कारण है बिना अविपाक निर्जरा के मोक्षमार्ग बनता ही नहीं है। इसी अविपाक निर्जरा में ही एक निर्जरा'असंख्यातगणथेणीनिर्जरा' कही। यह निर्जरा मोक्षमार्ग में अपना विशेष स्थान रखती है। असंख्यातगुणवेणीनिर्बरा क्या है? - जैसा कि शब्द से परिलक्षित होता है असंख्यात गुणी निर्जरा जो श्रेणी रूप में बढ़ती जाती है और हर अगले समय में पूर्व समय से असंख्यात गुणे कर्मों की निर्जरा होती जाती है । इसे एक उदाहरण से समझने पर स्पष्ट हो जायेगा। एक फकीर कुंभ के मेले में हरिद्वार गया और उसने घूमते हुये एक सेठ से एक रूपये भिक्षा की याचना की। सेठ ने उससे कहा कि 1 रूपये कमाने में मेहनत होती है, मुफ्त में नहीं आता हम एक रूपये को तो 6 माह में अपनी मेहनत से दुगना कर लेते हैं, फकीर सुनकर मुस्कराया और कहने लगा - सेठ आप बहुत कुशल व्यापारी हैं अत: 1 रूपया मेरा भी *SH, भावक निवास, गली नं. ३ प्रेमनगर, सतमा, फोन नं. 237174, 235474
SR No.010142
Book TitleTattvartha Sutra Nikash
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRakesh Jain, Nihalchand Jain
PublisherSakal Digambar Jain Sangh Satna
Publication Year5005
Total Pages332
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size20 MB
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