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________________ wom अम्बन्ध मेद - द्रव्यबन्ध के चार भेद किये गए हैं • 1, प्रकृतिबन्ध, 2. प्रदेशबन्ध, 3, स्थितिबन्ध और . अनुभामबन्ध । ' . . . . :' प्रकृतिबन्ध - प्रकृति का अर्थ है स्वभाव/कर्मबन्ध के समय बंधने वाले कर्म परमाणुओं में बन्धन का स्वभाव निर्धारण होना प्रकृतिबन्ध है। प्रकृतिबन्ध यह निश्चित करता है कि कर्म-वर्गणा रूप पुद्गल आत्मा की ज्ञान-दर्शन आदि किस शक्ति को आवृत्त/आच्छादित करेंगे। प्रदेशबन्ध - बँधे हुए कर्मपरमाणुओं की मात्रा को प्रदेशबन्ध कहते हैं स्थितिबन्ध - बँधे हुए कर्म जब तक अपना फल देने की स्थिति में रहते हैं, तब तक की काल मर्यादा को स्थितिबन्ध कहते हैं। सभी कर्मों की अपनी-अपनी स्थिति होती है। कुछ कर्म क्षणभर टिकते हैं तथा कुछ कर्म अतिदीर्घ काल तक आत्मा के साथ चिपके रहते हैं। उनके इस टिके रहने की काल-मर्यादा कोही स्थितिबन्ध कहते हैं। जिस प्रकार गाय, भैंस, बकरी आदि के दूध में माधुर्य एक निश्चित कालावधि तक ही रहता है, उसके बाद वह विकृत हो जाता है। उसी प्रकार प्रत्येक कर्म का स्वभाव भी एक निश्चित काल तक ही रहता है। यह मर्यादा अर्थात् काल की सीमा ही स्थितिबन्ध है, जिसका निर्धारण जीव के भावों के अनुसार कर्म बँधते समय ही हो जाता है और कर्म तभी तक फल देते हैं, जब तक कि उनकी स्थिति होती है। इसे काल-मर्यादा भी कह सकते हैं। अनुभावबन्ध - कर्मों की फलदान-शक्ति को अनुभागबन्ध कहते हैं। कर्मफल की तीव्रता मन्दता इसी पर अवलम्बित है। प्रकृतिबन्ध सामान्य है । अपने-अपने स्वभाव के अनुरूप कर्म आ तो जाते हैं, किन्तु उनमें तरतमता अनुभागबन्ध के कारण ही आती है। जैसे - गन्ने का स्वभाव मीठा है, पर वह कितना मीठा है, यह उसमें रहने वाली मिठास पर ही निर्भर है । ज्ञानावरणीय कर्म का स्वभाव ज्ञान को ढाँकना है, पर वह कितना ढाके, यह उसके अनुभागबन्ध की तरतमता पर निर्भर है। प्रकृतिबन्ध और अनुभागबन्ध में इतना ही अन्तर है। ___अनुभागबन्ध में तरतमता हमारे शुभाशुभ भावों के अनुसार होती रहती है। मन्द अनुभाग में हमें अल्प सुख-दुःख होता है तथा अनुभाग में तीव्रता होने पर हमारे सुख-दुःख में तीव्रता होती है । जैसे - उबलते हुए जल के एक कटोरे से भी हमारा शरीर जल जाता है, किन्तु सामान्य गर्म जल से स्नान करने से शरीर गर्म तो होता है, पर वैसा कोई प्रभाव नहीं पड़ता। उसी प्रकार तीव्र अनुभाग युक्त अल्पकर्म भी हमारे गुणों को अधिक घातते हैं तथा मन्द अनुभाग युक्त अधिक कर्म-पुंज भी हमारे गुणों को घातने में उतने समर्थ नहीं हो पाते। इसी कारण चारों बन्धों में अनुभागबन्ध की ही प्रधानता इन चार प्रकार के बन्धों में प्रकृतिबन्ध और प्रदेशबन्ध योग से होते हैं, जबकि स्थितिबन्ध और अनुभागबन्ध का कारण कषाय है। इस प्रकार कर्मों से बंधा हुआ जीव विकारी होकर नाना-योनियों में भटकता है। कर्म ही जीव को परतन्त्र करते हैं। संसार में जो विविधता दिखाई देती है, वह सब कर्मवन्धजन्य ही है। आसब और बन्ध के स्वरूप को विशेष रूप से समझने के लिए कर्म-सिद्धान्त पर विचार करना आवश्यक है। उसके बिना इस विषय को समझ पाना असम्भव है। १.अ. तत्वार्थसूत्र, 8/3. ब. पडिडिदिअणुभागा पदेसभेवा दुबदुविधो बंधो। -वही, 3
SR No.010142
Book TitleTattvartha Sutra Nikash
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRakesh Jain, Nihalchand Jain
PublisherSakal Digambar Jain Sangh Satna
Publication Year5005
Total Pages332
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size20 MB
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