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________________ - माम्यब- "रायोपपूर्वक पापाताभावो माध्यस्थम्' अर्थात् रागद्वेषपूर्वक पक्षपात न करना माध्यस्थ है। रागद्वेषपूर्वक किसी एक पक्ष में न पड़ने के भाव को माध्यस्थ या तटस्थ भाव कहते हैं। ग्रहण, धारण, विज्ञान और ऊहापोह से रहित महामोहाभिभूत विपरीत दृष्टि और विरुद्धबृत्ति वाले प्राणियों में माध्यस्थ की भावना रखनी चाहिए। पुरुवापंचाय धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष ये चार पुरुषार्थ माने गये हैं। तत्त्वार्थसूत्र में यद्यपि इन चारों के विषय में एक साथ पुरुषार्थ रूप कोई सूत्र नहीं आया है । किन्तु प्रथम अध्याय के सूत्र 1 में - 'सम्पयनशानचारिवाणि मोक्षमार्ग: कहकर चारित्र और मोक्ष का उल्लेख मिल जाता है जो धर्म और मोक्ष पुरुषार्थ को व्यंजित करते हैं। चारित बलु धम्मो ऐसा आचार्य कुन्दकुन्द देव ने कहा ही है । तत्त्वार्थसूत्र के दशवे अध्याय में 'बन्धहेत्वभावनिर्जराम्यां कृत्स्नकर्मविप्रमोको मोबः' में मोक्ष को परिभाषित किया है । अर्थ पुरुषार्थ को हम तत्त्वार्थसूत्र के सप्तम अध्याय के एक सूत्र में आगत परिग्रह शब्द और 'मवत्तादान स्तेयम्' अर्थात् बिना दी गई वस्तु का ग्रहण करना चोरी है तथा अचौर्याणुव्रत के अविचार बताने वाले सूत्र 'स्तेनप्रयोगतवाहतादानविरुद्धराज्यातिकमहीनाधिकमानोम्मानप्रतिरूपकव्यवहारा:' अर्थात् स्तेनप्रयोग, तदाहृतादान, विरुद्धराज्यातिक्रम, हीनाधिकमानोन्मान और प्रतिरूपक व्यवहार (मिलावट) के माध्यम से बताया है कि अर्थ पुरुषार्थी के लिए यह कर्म वय॑ है। काम पुरुषार्थ तत्त्वार्थसूत्र के अध्याय 7 के अट्ठाइसवें सूत्र से ज्ञात होता है जिसके माध्यम से बताया है कि कामपरुषार्थी को एकदेश ब्रह्मचर्य व्रत का पालन करते हुए उसके अतीचारों से बचना चाहिए। ये अतिचार हैं - 'परविवाहकरणेत्वरिकापरिगृहीतापरिगृहीवागमनानङ्गक्रीडाकामतीव्राभिनिवेशाः । अर्थात् परविवाहकरण (दूसरे के पुत्र-पुत्रियों का विवाह करना, कराना), अपरिगृहीत इत्वरिकागमन (पति रहित व्यभिचारिणी स्त्रियों के यहाँ आना-जाना), परिगृहीतइत्वरिकागमन (पतिसहित व्यभिचारिणी स्त्रियो के पास आना-जाना), अनंगक्रीड़ा (कामसेवन के लिए निश्चित अंगों को छोड़कर अन्य अंगों से कामसेवन करना), कामतीव्राभिनिवेश (कामसेवन की तीव्र लालसा रखना) । काम पुरुषार्थी को इन दोषों से बचना चाहिए। __ मानव होने का मतलब मात्र जीना नहीं है क्योंकि जी तो पशु-पक्षी भी लेते हैं। आहार, निद्रा, भय और मैथुन पशु और मनुष्यों में समान हैं किन्तु विवेक सम्मत आचरण तो मनुष्य ही कर सकता है अत: उसके जीवन का लक्ष्य सनिश्चित होना ही चाहिए। धर्म से नियंत्रित जीवन में ही मानवीयता के दर्शन हो सकते हैं। - १. सर्वार्थसिद्धि,7/11/683 २. तत्वार्थवार्तिक 1/1/1-4 .. ३. वही,7/11/5-7 ४. तत्वार्थसूत्र, 1/1 ५. आचार्य कुन्दकुन्द : प्रवचनसार गाथाn ६.सस्वार्थसूत्र, 10/2 . ७. वही,7/15 ८. वही, 1/m ९.वही.1/28 : ""
SR No.010142
Book TitleTattvartha Sutra Nikash
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRakesh Jain, Nihalchand Jain
PublisherSakal Digambar Jain Sangh Satna
Publication Year5005
Total Pages332
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size20 MB
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