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________________ हैं : अप्रत्याख्यानावरण-क्रोध, मान, माया, लोभ, मनुष्यायु, मनुष्यगति, औदारिकशरीर, औदारिकअंगोपांग, कार्षभनारायसहनम और मनुष्यगतिप्रायोग्यानुपूर्वी । (ष.खं. पु. 8/29-30, स. सि. 9/1) प्रत्याख्यानावणकषायोदभूत असंयम की विशेषता से प्रत्याख्यानावरण क्रोध, मान, माया और लोभ इन चार प्रकृतियों का मासव होता है। (ष.खं. पु. 8/19-20, स. सि. 9/1) प्रमाद की विशेषता से असातावेदनीय, अरति, शोक, अस्थिर, अशुभ, अयश:कीर्ति ये छह प्रकृतियाँ आसवित होती हैं। (ष.खं. पु. 8/13-14, स. सि. 9/1) देवायु का आस्रव प्रमाद तथा प्रमादनिकटवर्ती अप्रमाद (अप्रमत्तसंयम) से होता है। (ष.खं. पु. 8/31-32, स. सि. 9/1) प्रमादादिरहित संज्वलनकषाय तीव्र, मध्यम और जघन्यरूप होता है । तीव्रसंज्वलन के उदय में निद्रा, प्रचला, देवगति, पंचेन्द्रियजाति, वैक्रियिकशरीर, आहारकशरीर, तैजसशरीर, कार्मणशरीर, समचतुरस संस्थान, वैक्रियिकशरीरांगोपांग, आहारकशरीरांगोपांग, वर्ण, गन्ध, रस, स्पर्श, देवगतिप्रायोग्यानुपूर्वी, अगुरुलघु, उपघात, परघाल, उच्छवास, प्रशस्तविहायोगति, स, बादर, पर्याप्त, प्रत्येकशरीर, स्थिर, शुभ, सुभग, सुस्वर, आदेय, निर्माण, तीर्थकर हास्य, रति, भय और जुगुप्सा, ये छत्तीस प्रकृतियाँ आम्रव को प्राप्त होती है ।(ष.ख. पु. 8/33-38, स. सि. 9/1) प्रमादादिरहित मध्यमसंज्वलनकषाय की विशेषता से पुरुषवेद, सज्वलन क्रोध, मान, माया एवं लोभ इन पाँच प्रकृतियों का आसव होता है । (ष.खं. पु. 8/21-26, स. सि. 9/1) जघन्य (मन्द) संज्वलनकषाय की विशेषत से पाँच ज्ञानावरण, चार दर्शनावरण, यश:कीर्ति, उच्चगोत्र और पांच अन्तराय, ये सोलह प्रकृतियाँ आम्रव को प्राप्त होती हैं। (ष.ख. पु. 8, स. सि.9/1) योग के निमित्त से केवल सातावेदनीय का आसव होता है। (ष.खं. पु. 8, स. सि. 9/1) इस प्रकार आगम मे कहीं शुभाशुभ योग को इन एक सौ बीस कर्म प्रकृतियों के आम्रव का हेतु कहा गया है, कहीं शुभाशभ उपयोग को और कहीं मिथ्यात्वादि पाँच प्रत्ययों को। ये अपेक्षाभेद से किये गये निरूपण हैं। इनका अभिप्राय एक ही है।
SR No.010142
Book TitleTattvartha Sutra Nikash
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRakesh Jain, Nihalchand Jain
PublisherSakal Digambar Jain Sangh Satna
Publication Year5005
Total Pages332
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size20 MB
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