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________________ 140/ तस्वार्थसूत्र- निकाय द्विविम उपयोग : ज्ञानात्मक, आचरणात्मक उपयोग दो प्रकार का है ज्ञानात्मक एवं आचरणात्मक अथवा अर्थग्रहणव्यापारात्मक एवं शुभाशुभशुद्धपरिणामात्मक । ब्रह्मदेवसूरि ने इनका प्ररूपण निम्नलिखित वाक्यों में किया है. 'किञ्च ज्ञानदर्शनोपयोगविवक्षायामुपयोगशब्देन विवक्षितार्थ परिच्छित्तिलक्षणोऽर्थग्रहणव्यापारी गृह्यते । शुभाशुभशुद्धोपयोगत्रयविवक्षायां पुनरुपयोगशब्देन शुभाशुभशुद्धभावनैकरूपमनुष्ठानं ज्ञातव्यमिति' (बृहद्द्रव्यसंग्रह, टीका गाथा 6 ) । अर्थ: जब 'उपयोग' शब्द से ज्ञानोपयोग और दर्शनोपयोग अर्थ लिया जाय, तब उसका अर्थ होता है अर्थग्रहणव्यापार अर्थात् वस्तुविशेष को जानने की क्रिया । तथा जब वह शुभ, अशुभ और शुद्ध उपयोग के अर्थ में प्रयुक्त हो, तब उससे शुभभाव रूप परिणमन, अशुभभावरूप परिणमन और शुद्धभाव रूप परिणमन अर्थ ग्रहण किया जाना चाहिए । - अर्थग्रहण व्यापार रूप उपयोग केवली भगवान् में भी होता है, किन्तु शुभाशुभशुद्धपरिणामात्मक उपयोग छद्मस्थों में ही पाया जाता है। आचार्य जयसेन ने कहा है कि पहले से तीसरे गुणस्थान तक क्रमशः घटता हुआ अशुभोपयोग होता है, चौथे से छठे तक क्रमशः बढ़ता हुआ शुभोपयोग होता है, सातवें से बारहवें गुणस्थान तक क्रमशः बढ़ता हुआ शुद्धोपयोग होता है तथा तेरहवें और चौदहवें गुणस्थानों में शुद्धोपयोग के घातिकर्म चतुष्टय क्षयरूप फल की उपलब्धि होती है। शुभ, अशुभ और शुद्ध परिणाम तथा शुभ, अशुभ और शुद्ध उपयोग समानार्थी हैं। यह आचार्य जयसेन के निम्नलिखित वचनों से ज्ञात होता है । - 'किं च जीवस्यासंख्येयलोकमात्रपरिणामाः सिद्धान्ते मध्यमप्रतिपत्त्या मिथ्यादृष्ट्यादिचतुर्दशगुणस्थानरूपेण कथिताः । अत्र प्राभृतशास्त्रे तान्येव गुणस्थानानि संक्षेपेण शुभाशुभशुद्धोपयोगरूपेण कथितानि' (तात्पर्यवृत्ति, प्रवचनसार, गाथा 1 / 9 ) । अर्थ : जीव के असंख्यात लोकमात्र परिणाम होते हैं। सिद्धान्तग्रन्थों में मध्यमदृष्टि (स्थूलदृष्टि) से उन्हें मिथ्यादृष्टि आदि चौदह गुणस्थानों के रूप में वर्णित किया गया है। इस प्राभृतशास्त्र में वे ही गुणस्थान संक्षेप में शुभ, अशुभ और शुद्ध उपयोग के रूप में प्ररूपित किये गये हैं। शुभाशुभोपयोग से योग का शुभाशुभत्व शुभ और अशुभ उपयोग के निमित्त से योग शुभ और अशुभ होता है, जैसा कि पूज्यपादस्वामी ने कहा है। 'कथं योगस्य शुभाशुभत्वम् ? शुभपरिणामनिर्वृत्तो योगः शुभः । अशुभपरिणामनिर्वृत्तश्चाशुभः । न पुनः शुभाशुभकर्मकारणत्वेन । यद्येवमुच्यते शुभयोग एव न स्यात्, शुभयोगस्यापि ज्ञानावरणादिबन्धहेतुत्वाभ्युपगमात् । ' ( स. fer, 6/3) १. मिध्यात्व - सासादन मिश्रगुणस्थानत्रये तारम्येनाशुभोपयोगः । तदनन्तरमसंयतसम्यग्दृष्टि- देशविरत प्रमत्तसंयतगुणस्थानत्रये तारतम्येन शुभोपयोगः । तदनन्तरमप्रमत्तादिक्षीणकषायान्त-गुणस्थानषट् के तारतम्येन शुद्धोपयोगः । तदनन्तरं सयोग्ययोगिजिनगुणस्थानद्वये शुपयोगफलमिति भावार्थ: । तात्पर्यवृत्ति, प्र. सा. गाथा 1 / 9
SR No.010142
Book TitleTattvartha Sutra Nikash
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRakesh Jain, Nihalchand Jain
PublisherSakal Digambar Jain Sangh Satna
Publication Year5005
Total Pages332
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size20 MB
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